The Joy of Living Together - अध्याय १ (भाग ३)
क्रमशः पीछे से ……………
जीसस क्राइस्ट ने भी यहूदी धर्म द्वारा लिखित नियमों को मानने के बजाय जीवंत वर्तमान के नियमों के अनुसार जीने की सलाह दी क्योंकि जीसस ने यह अनुभव किया कि ईश्वर (अंतिम सत्य) जीवंत वर्तमान में ही है, किसी लिखित पोथी में यानी शब्दों, प्रतीकों और प्रतिमाओं में नही. सत्य का अस्तित्व एवं सत्य के बारे में लिखी पोथियों का अस्तित्व, इन दोनों में कोई भी आपसी नाता नही, दोनों एक दुसरे के परस्पर विरोध में खड़े हैं. जिन्हें भी शब्दों और प्रतिमाओं की निरर्थकता समझ आ गयी, उन्हें ही सत्य का अस्तित्व अनुभूत हुआ. ऐसे ही सत्य को अस्तित्वमयी या स्वाभाविक धर्म या वैश्विक-धर्म कहा जा सकता है. जो प्रत्येक जीवंत क्षण में जागा है, किसी पूर्व-निर्धारित संकल्पनाओं में भटका हुआ नही, वही सही अर्थ में धार्मिक है. उसे ही धर्म ने धारण किया है. वह किसी काल्पनिक धर्म को धारण किये हुए नही है. तात्पर्य यह कि मनुष्य समाज में ऐक्य, सामजस्य और शांति का माहोल तभी बनेगा जब व्यक्ति किसी भी संगठित धर्म या धर्म-पुस्तक के प्रभाव से बचा होगा. ऐसा माहोल तैयार करने के लिए समाज के वर्तमान संविधान में कुछ सुधार की भी जरूरत होगी. किसी भी पूर्वग्रह या नियम से मुक्त व्यक्ति ही असत्य की असत्यता को समझ सकने की सक्षमता पा सकेगा. समाज में ऐसे व्यक्ति ही बहु-वंशीय एवं बहु-संस्कृति वाले समुदाय में परस्पर आदर एवं सामंजस्य लाने में सहयोगी हो सकते हैं. क्रमशः आगे …. अध्याय १ (भाग ४)
जीसस क्राइस्ट ने भी यहूदी धर्म द्वारा लिखित नियमों को मानने के बजाय जीवंत वर्तमान के नियमों के अनुसार जीने की सलाह दी क्योंकि जीसस ने यह अनुभव किया कि ईश्वर (अंतिम सत्य) जीवंत वर्तमान में ही है, किसी लिखित पोथी में यानी शब्दों, प्रतीकों और प्रतिमाओं में नही. सत्य का अस्तित्व एवं सत्य के बारे में लिखी पोथियों का अस्तित्व, इन दोनों में कोई भी आपसी नाता नही, दोनों एक दुसरे के परस्पर विरोध में खड़े हैं. जिन्हें भी शब्दों और प्रतिमाओं की निरर्थकता समझ आ गयी, उन्हें ही सत्य का अस्तित्व अनुभूत हुआ. ऐसे ही सत्य को अस्तित्वमयी या स्वाभाविक धर्म या वैश्विक-धर्म कहा जा सकता है. जो प्रत्येक जीवंत क्षण में जागा है, किसी पूर्व-निर्धारित संकल्पनाओं में भटका हुआ नही, वही सही अर्थ में धार्मिक है. उसे ही धर्म ने धारण किया है. वह किसी काल्पनिक धर्म को धारण किये हुए नही है. तात्पर्य यह कि मनुष्य समाज में ऐक्य, सामजस्य और शांति का माहोल तभी बनेगा जब व्यक्ति किसी भी संगठित धर्म या धर्म-पुस्तक के प्रभाव से बचा होगा. ऐसा माहोल तैयार करने के लिए समाज के वर्तमान संविधान में कुछ सुधार की भी जरूरत होगी. किसी भी पूर्वग्रह या नियम से मुक्त व्यक्ति ही असत्य की असत्यता को समझ सकने की सक्षमता पा सकेगा. समाज में ऐसे व्यक्ति ही बहु-वंशीय एवं बहु-संस्कृति वाले समुदाय में परस्पर आदर एवं सामंजस्य लाने में सहयोगी हो सकते हैं. क्रमशः आगे …. अध्याय १ (भाग ४)
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