अध्याय एक - सही शिक्षा - परंपरा से निकले धर्म बनाम शांति एवं सामंजस्य

हम जिस समाज में रहते हैं वहां कुछ पाने या अर्जित करने तथा अर्जन करने की इच्छा को बहुत महत्व दिया गया है. समाज ऐसे ही लाभ-इच्छुक व्यक्तियों से बना हुआ है . हर कोई कुछ बनने की सोचता है. 'स्वयं वह है क्या, उसका अस्तित्व क्या है' - इसे ठीक से जाने बिना ही कुछ अधिक बनना चाहता है. स्वयं के बारे में पूरी तरह अनिभिज्ञ होते हुए भी स्वयं की उन्नति चाहता है. इस प्रकार की अनिभिज्ञता या अज्ञान को दूर करने के मार्ग में अगर कोई सबसे बड़ी अड़चन है तो वह है उसका ज्ञान. उसके द्वारा प्राप्त किया ज्ञान ही उसके अज्ञान का प्रमुख कारण है .
जीसस क्राइस्ट ने भी कहा है -
"You will listen and listen, but not understand, you will look and look, but not see, because this people's mind are dull"
सेंट पाल ने कहा है - "God has shown that this world's knowledge is foolishness"
गौतम बुद्ध के अनुसार - "हमारा अस्तित्व नश्वर अनिजी है, इस बारे में हम पूरी तरह बेखबर हैं. ऐसे समझे गए अस्तित्व से जुड़ा तादात्म हमारे जीवन में दुःख ही दुःख लाता है "
अष्टावक्र ने कहा- - 'मै, और कुछ नहीं. अपना शुद्ध अन्तःकरण हूँ ' - इस
धृड-विश्वास की अग्नि से अज्ञान के जंगल को जला डालो और इसतरह एक आनंदपूर्ण कष्टविहीन जीवन जी लो
जे कृष्णमूर्ति अपने प्रवचन में कहते हैं - 'मै' - जिसे हम एक निरीक्षक, अनुभवक, विचार-कर्ता के रूप में देखते हैं, वह हमारे कुल निरिक्षण- अनुभव - विचारों का एकत्रित जोड़ है. इसका मतलब यही कि 'मै -स्व-अहं'- और कुछ नहीं, हमारे ही ज्ञान का मूर्तरूप है. इसी मूल समझ के आधार पर
जे कृष्णमूर्ति अपने जीवनभर - 'ज्ञान से मुक्ति ' का सन्देश देते रहे.... क्रमशः आगे

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