'सत्यमेव जयते '
एक वक्तव्य पढा और इससे मिलतेजुलते विचार भी कई बार सुनने को मिलते हैं.
वक्तव्य है –
'सत्यमेव जयते ' इस कलियुग का सन्देश नहीं बन सकता है . सत्य के मुँह पर असत्य ने कई बार कालिख पोती है और वह उपहास का पात्र बन सर झुकाए खड़ा रहा. फिर किस पर विश्वास करें? ये मूल्य और नैतिकता तब कहाँ दिलासा दे पाते हैं? ......
ऊपर अभिव्यक्त भावनाओं पर चिंतन होना जरूरी है. ‘आखिर सत्य ही जीतता है’ – इस वाक्य को बहुत ही गलत ढंग से समझा गया है.
जीवन में सत्य-असत्य का संघर्ष मनुष्य के आदिकाल से ही चला आ रहा है. असत्य और सत्य दोनों ही एक साथ जीवंत रहते हैं, ऐसा नही कि सत्य के सामने असत्य खड़ा ही नही होता. परन्तु असत्य को इस बात की सदैव वेदना है कि उसे सत्य का सम्मान नही मिलता. असत्य की भले ही विजय होती प्रतीत होती हो पर जीतने वाला कभी नही कहता कि विजय असत्य की हुई है, वह असत्यको सत्य का सम्मान देकर ही उसे स्वीकारता है. इसी अर्थ में यह कहा गया है की विजय सत्य की ही होती है. परास्त हुआ असत्य भी जानता है कि सत्य क्या है, वह सत्य के आधार पर ही अपनी विजय का मूल्यमापन करता है. यदि ऐसी भावना हो जाए कि उसका पक्ष गलत है तो भी वह उसे सही करार देता है ताकि उसे अपनी पराजय का एहसास न हो. कहने का मतलब असत्य सत्य से भागता है और सत्य सभी स्थितियों में अडिग है और इसीलिए सत्य को दोनों हो तरफ –सत्य और असत्य दोनों ही पक्षों में – सम्मान प्राप्त है.
..................................................................................................... अरुण
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