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Showing posts from February, 2010

आज के रूहानी शेर

जुबां से बयाने सच, मुमकिन मगर सच पकड़ना, जुबां के बस में नही ......................... शक उठाने औ उसे दूर किये जाने पर बात तह तक समझ में आती है ........................ पल पल जिए, सच्चाई अपनी नजारा- ए- वक्त, बदलता रहता है ....................... जमीं से उठ्ठी भाप के दरिया सी शख्सियत कैसे जमीं को थामे जो गहरी हकीकत ................................................ अरुण

जीवनगत एक गज़ल

सभी कामनाएँ सफल हो गयीं पर नही तृप्त होती मनस प्यास पूरी सारे सवालात जीवंत मन के जबाबों से उनकी नही कोई दूरी किसी भी शिला से निकालो निरर्थक बचे शिल्पसा एक सार्थक जरूरी व्यक्तित्व की तब निद्रा विखंडित अचानक सजगता, करे वार भारी कभी शेर में ढल , कभी मुक्त कविता मनन चिन्तना की, बहे धार सारी ................................................ अरुण

आज के ताजे शेर

जो भी होता ठीक ही है इस जहाँ में अच्छा बुरा तो आदमी का इक हिसाब ................................. जेहनी कोशिशें जेहन से पार जाने की साहिल पे खड़े दरिया में तैरने जैसा ...................... अँधेरा देख लेना, मुकम्मल देख लेना एक ही पल में इसी को जागने की इंतिहा कहते है ............................................................. अरुण

आज के शेर

सीखकर जिंदगी की राह पे बढ़नेवाले हर कदम राह छोड़ नक्शों पे चलतें है .................................... बहती धारा है धरम कुदरते जीवन का बहाव पूजे जाते जो धरम, ठहरे हुए पानी हैं .................................................. अरुण

आज के नये शेर

दिमागी खेल हुआ करती दुनियादारी कुदरती जिंदगी तो दिल को समझ आती है ................ दौड़ते जिस्म ने जानी जो लहू की गर्मी किसी पोथी में समझाई नही जा सकती ................. हिन्दू हो या मुसल्मा या कोई धरम ये तो चोलें हैं, इनके परे है सच्चाई .............................. न चलना है न जाना है न पहुँचना है कहीं जहाँ पे खड़े हैं, वहीँ पे लौट आना है .................................................... अरुण इस ब्लॉग पर ठीक एक साल पहले लिखना शुरू किया. लगातार लिख रहा हूँ. पाठकों का आभारी हूँ ----- अरुण खाडिलकर

मिले वैसी ही जिंदगी तो .......

जिसने कोई न सुनी और पढ़ी ज्ञान की बात क्या कभी ज्ञान को उपलब्ध नही हो सकता ? .................... पूरी कुदरत की रूह जिस तरह से जिन्दा है मिले वैसी ही जिंदगी तो कितना अच्छा हो ........................... चेहरे सत्पुरुषों के आइनों से कम नहीं उनमें दिखती है असल जो भी है सूरत अपनी ....................... तोड़कर फूल पिरोकर जो बनाते माला फूल से बच्चे, मरे जाते अदब के खातिर ....................... जिसने दिन ढलते ही आँखों को मूँद रखा हो सुबह हो गई हो उसको पता कैसे हो ................................................ अरुण

कुछ शेर

जिसने कोई न सुनी और पढ़ी ज्ञान की बात क्या कभी ज्ञान को उपलब्ध नही हो सकता ? .................... पूरी कुदरत की रूह जिस तरह से जिन्दा है मिले वैसी ही जिंदगी तो कितना अच्छा हो ........................... चेहरे सत्पुरुषों के आइनों से कम नहीं उनमें दिखती है असल जो भी है सूरत अपनी ....................... तोड़कर फूल पिरोकर जो बनाते माला फूल से बच्चे, मरे जाते अदब के खातिर ....................... जिसने दिन ढलते ही आँखों को मूँद रखा हो सुबह हो गई हो उसको पता कैसे हो ................................................ अरुण

कुछ शेर

बस मेरे पास रहो साथ तेरा काफी है दिल को देते रहो माहोल, बदल जाने को ............................. महफिल में पांव रखते नज़रों में आ बसी वो दिखता नही जहाँ में महफिल को छोड़ कुछ भी .......................... हम नए थे के रिवायत ने लपककर पकड़ा हर नया दिन नयी साँस से महरूम हुआ ..................................................... अरुण

दो शेर

ख़ुशी की खोज में निकले हुए नाकाम हुए थक के बैठे ही थे के बादल ख़ुशी के आ बरसे ....................... है जान लिया मैंने अपना जो पागलपन फिर भी न उसे देखा इस दिल ने अच्छे से ....................................................... अरुण

राजनैतिक बवालबाजी- मुंबई में

तुम जनता की आवाज हो, यह कहते हो फिर प्रोपर्टी जनता की जलाते क्यों हो ......................................... दहशत की है जुबान, हिंसा का है फरमान और कहतें हो, ये डेमोक्रेटिक हक़ है हमारा ............................. तुम्हे मालूम है के जनता कुछ कहती नही उसकी नुमाईंदगी के नाम पर बवाल करते हो ..................................... माइकल चलता है फिर छठ पूजा क्यों नही छठ पूजा से भी फंड रेजिंग हो सकती है ........................ उसके कहने का तरीका बवालिया है मकसद सही न हो पर कहने में कुछ दम तो है .......................................................... अरुण

तिकड़मे राजनीति

तुम जनता की आवाज हो, यह कहते हो फिर प्रोपर्टी जनता की जलाते क्यों हो ......................................... दहशत की है जुबान, हिंसा का है फरमान और कहतें हैं, हमारा हक़ है ये ............................. तुम्हे मालूम है के जनता कुछ कहती नही उसकी नुमाईंदगी जताके बवाल करते हो .....................................................अरुण

प्रपंच मन में है, ध्यान में नही

सिनेमा हाल में मूव्ही चल रही है। बालकनी के ऊपर कहीं एक झरोखा है जहाँ से प्रकाश का फोकस सामने के परदे पर गिरते ही चित्र चल पड़ता है, हिलती डोलती प्रतिमाओं को सजीव बना देता है। हमें इन चल- चित्रों में कोई स्टोरी दिख रही है। हम उस स्टोरी में रमें हुए हैं। परन्तु जैसे ही ध्यान, झरोखे से आते प्रकाश के फोकस पर स्थिर हुआ, सारी स्टोरी खो गई। केवल प्रकाश ही प्रकाश , न कोई स्टोरी है, न कोई चरित्र है, न घटना, न वेदना, न खुशी, कुछ भी नही। ये सारा प्रपंच परदे पर है, प्रकाश में नही। संसार रुपी इस खेल में भी, प्रपंच मन में है, ध्यान में नही। .................................................................................. अरुण

कुछ शेर ताजा ताजा

सरहदें हैं जबतलक महफूज दिल में इरादा जंग का मिटता नही ......... तशनालब को ही है तलाश उस पानी की बाकी तो बस जाम लिए बैठे हैं ................... झूठ से भागोगे तो बात बिगड़ जाएगी झूठ को जाने बिना सच को देखा किसने ................. जंगल में पेड़ तनहा चुपचाप खड़ा हो तनहा तो इन्सान बडबडाता है ................................................ अरुण

प्रगाढ़ होश

प्रगाढ़ होश आते ही गहराया और छाया शुरू से शुरू तक होश गंगोत्री के स्रोत पर खड़ा ही रहा अंत तक बिना टूटे .......... और बिना टूटे ही गिर पड़ा गहरी खाई में गंगा के प्रपात बनकर आगे की ओर बहता हुआ विशाल धारा बना घाटों, गावों और शहरों को छूता उनसे सुसंवाद साधता हुआ गुजरा एक तरंगमयी बहाव बन कर मीलों का अंतर काटता हुआ सागर की गोद में आ गिरा और डूब गया अथाह में ...... अचानक एक कोमल झटके ने उसे ध्यान दिलाया कि अभी भी वह खड़ा है गंगोत्री के स्रोत पर ............................ अरुण

आज के दोहे

निर्बाधित ऊर्जा रमें परमशक्ति की गोद मन की बाधा रोक दे, परमशक्ति का बोध ......................... सपने के सब यार दें, निद्रा में ही साथ उनसे कैसी दोस्ती, दिवस गया जब जाग ......................... सपना देखे आदमी वास्तव को अनदेख माया उभरे सत्य को गलत तरह से देख ............................................... अरुण

आज के दोहे

बादल पे चलना नही, गर जाना घन-पार मन-प्रयास सब व्यर्थ हैं, गर जाना मन-पार .................................. सूरज देता रोशनी, आँख चलाती राह आँखे सूरज पे टिकीं तो रुक जाती है राह .................................... संसारी को मिल गये, साधन मन के पास साधन ना वे काम के, जब निर्मन का वास ...................................................... अरुण

आज के दोहे

दुख का काटा ना चुभे, सुख ना देत सुगंध देखो गर नजदीक से, दोनों मन के बन्ध ............................ जिसने देखा साच को वो न धरे विश्वास जिसके मन संदेह है, विश्वासों का दास ............................. पेटी में का चीज है खोले से दिख जात बिन खोले ही मान ले, उसकी मूरख जात ........................................................अरुण

तीन दोहे

दुनिया भर के ज्ञान को, माथे में धर लेत माथे का सत देखते, सत पे माथा टेक .............. सभी पुजारी सत्य के मिलकर संघ बनाय पूजा होती सत्य की लेकर झूठ उपाय ................... अगला कोई न जानता, अगले छन काय होय यह सच जिसमे रम गया, बिना किसी डर सोय .............................................................. अरुण