भारत में धरना-आन्दोलनों का अतिरेक
भारत में जनतंत्र स्थापित तो हुआ पर सही माने में नहीं. जनप्रतिनिधि और सरकार के चयन की कारवाई में जनता शामिल तो हुई परन्तु पूरी जिम्मेदारी के साथ नहीं. चुनाव के बाद जनता अपनी सारी जिम्मेदारियों का बोझ चुने हुए लोगों पर छोड़कर निश्चिन्त हो जाती है. चुने हुए लोग भी पूरी जिम्मेदारी को प्रशासकों और शासकों पर छोड़ देते हैं. जनता का काम केवल चयन करना नहीं बल्कि सतत निगरानी करते रहना है. यह बात न तो जनता ने सीखी और न ही ऐसी सीख जन-मन में उपजाने वाले लोग सामने आए. जो भी आये वे सब धरना, आन्दोलन, भूक हड़ताल या तोड़फोड़ में ही रस लेते दिखे. उनकी रूचि जनता को आगे लाने में नही.. बल्कि अपने को आगे रखने में बनी. जनता अगर सतत निगरनी करती रहे तो धरना-आन्दोलन और ऐसे उपायों का अतिरेक अपने आप कम हो जाएगा. इन उपायों का उपयोग केवल संकटकाल में ही होना उचित होगा. जनता ने केवल उदासीन और असंतुष्ट होना ही सीखा है, सतर्क और आश्वस्थ होना नही. -अरुण