Posts

Showing posts from June, 2014

‘श्रद्धा’ का तात्पर्य -

‘श्रद्धा’ यह शब्द अक्सर बहुत ही ढिलाई, असावधानी और गैरजिम्मेदाराना तरीके से इस्तेमाल किया जाता है. जब   उसका स्व-मन भी उसकी अपनी कृति का समर्थन न करता हो, उस समय भी आदमी अपने बचाव में ‘श्रद्धा’ का बहाना ढूँढ लेता है. उसे मालूम है कि...’मेरी श्रद्धा है’- ऐसा कहकर वह कुछ भी करे तो समाज उसपर कोई संदेह जतलाने का साह्स न कर सकेगा. भय-लालच-आदतवश या   किसी कार्यसिद्धि के लिए की गई कृती को भी आदमी श्रद्धा से ही किया गया काम समझता रहता है. श्रद्धा ऐसी परिपूर्ण निसंदिग्धता की मनोस्थिति को कहते है, जिसमें आदमी दवारा होने वाली कृती उसकी स्पष्ट-दृष्टि, स्पष्ट-दिशा, स्पष्ट समझ और उसके आत्मबल की परिचायक होती है. श्रद्धावान अपनी ही व्यापक और गहन दृष्टि के सहारे चलता है, किसी दूसरे के भरोसे या ज्ञान की उसे जरूरत नहीं होती. -अरुण    

शब्द संचो की समान धर्मिता

सत-रज-तम..यानि ...पूर्णप्रकाश-अर्धप्रकाश-पूर् णअंधकार....यानि.....विश्राम-सं घर्ष-आलस्य...यानि संत-संसारी-दुराचारी....यानि ,,,,देव-मानव-दानव... यानि... अद्वैत-द्वैत-निष्क्रिय ...यानि ....समाधिस्थ-प्रापंचिक-अक्रिय ..यानि.................... इस तरह चिंतन के माध्यम से कई शब्द-संच सोचे जा सकते हैं -अरुण

अहं का जादू

अहं का जादू ****************** जादूगर दर्शकों से रहस्य छुपाते हुए अपनी जादू द्वारा उन्हें चकित कर देता है, 'बाबा'लोग  रहस्य छुपाते हुए भोलों को वश में कर लेतें हैं। सामाजिक माहौल के वश में रहने वाले हर आदमी के भीतर भी एक रहस्य छुपा हुआ है, जो हर आदमी में अहं जगाते हुए उसे मूर्च्छित कर  देता है। मूर्च्छा में पड़ा होने के कारण आदमी इस रहस्य को उघाड़े तो कैसे उघाड़े ? जो बिरले लोग मूर्च्छा से बाहर आ सके, उनके लिए रहस्य स्वयं प्रकट हो गया। अपनी ही परछाईं से मूर्च्छित आदमी जबतक अपने भीतर से ही प्रकाशित नहीं होता, अपनी परछाईं से मुक्त नहीं हो पाता। - अरुण

इस क्षण..

इस क्षण.. अबतक मै देखता रहा हूँ कि अपने तन, मन, धन इत्यादि से लगाव या तादात्म हो जाने के कारण ....मैं उन्हें अपनी मान बैठा, इतना ही नही, वे सब मै ही हूँ.... ऐसा समझ बैठा हँू।...  इस क्षण, इससे और भी गहराईवाली दृष्टि ने एक और गहनतम बात स्पष्ट कर दी है वह यह कि... अस्तित्व या इसके किसी भी अंश को, मेरा,तेरा,इसका..हमारा..उनका जैसे अधिकार संबोधन लागू ही नहीं होते।  - अरुण

अक्सर मै सोचता हूँ कि ...

अगर अवांछित चीज/चीजें दृष्टि में आते ही गायब हो जाए... तो एक ही पल में जो भी परिवर्तन चाहिए....वह घट सकेगा. अगर एक ही दृष्टि में सभी की सभी अवांछित चीजें लुप्त हो सकें...तो एक ही क्षण सम्पूर्ण क्रांति के लिए काफी है. मगर ऐसा होना संभव नहीं हो पा रहा.... केवल इसलिए क्योंकि... वह निर्बाध, अखंडित, निर्मल, निर्मन, विशुद्ध, समयमुक्त दृष्टि, जिस आँख को प्राप्त है वह आँख... साधना के बावजूद भी.... अभी भीतर-बाहर जाग नहीं पा रही. -अरुण

असली दिक़्क़त

पेड़ आँख से गुजरता है तो मस्तिष्क देखता है उसे जैसा का तैसा दिमाग़ पढ़ता है उसे जैसा चाहे वैसा बस यही तो है असली दिक़्क़त  -अरुण

प्रश्न की गहन समझ ही है उसका उत्तर

बचपन में अंकगणित को हल करते समय मेरे पिताजी कहा करते थे कि पहले प्रश्न को अच्छी तरह से पढ और समझ लो और बाद में ही उसे हल करने का चेष्टा करना. उनकी इस सूचना का मतलब धीरे धीरे समझने लगा. प्रश्न को ध्यानपूर्वक एवं स्पष्टता से पढने और समझने के दौरान ही प्रश्न को हल करने का रास्ता (तरीका) बिलकुल साफ साफ दिखाई देता और केवल कुछ जोड़-घटाने..गुणा-भाग करते ही हल निकल आता. अपने आतंरिक जीवन-प्रश्नों के हल भी इसीतरह स्पष्ट और पूर्णगत (वस्तुगत और व्यक्तिगत समग्रता)   आत्म-अवलोकन से हल होते है..इसबात को न समझपानेवाले   .... हल की खोज में बाहर दौड़ लगाते फिरते हैं... इस गुरु से उस गुरु तक, इस उपाय से उस उपाय तक, इस पूजा से उस पूजा तक, इस विधि से उस विधि तक ...... और पता नहीं क्या क्या और कैसी कैसी बातों का बोझ ढोते फिरते हैं. हल पाने की उन्हें इतनी जल्दी और हडबडाहट (इच्छा,लालसा,भय,चिंता...) रहती है कि उनसे जो भी करने को किसी ने कहा हो, उसे बिना किसी संदेह के करने के लिए तैयार हो जाते हैं ... ऐसी दुर्बल असंदिग्धता को ही ‘श्रद्धा’ मान लेते हुए वे गलत रास्ते पर और भी आगे निकल जाते हैं. ...

आध्यात्मिक जागृति सामाजिक न्यायोचितता से भी ऊपर उठकर

समाज अपेक्षा करता है कि....आदमी अपने आचरण में सामाजिक मान्यताओं को भंग न होने दे. आम खाने की इच्छा हो तो खरीदकर खाये, चुराकर नहीं...चुराकर खाने का ख्याल भी आए तो भी उस ख्याल को दबा दे ऐसे प्रतिरक्षात्मक तरीके से कि ..मन भी अधिक क्षतिग्रस्त न हो सके. अध्यात्मिक जागरूकता, सामाजिक मूल्यों की उपयुक्ता और मन की मांग, दोनों पर एक साथ जागते हुए, दोनों से ऊपर उठे आचरण के रूप में अभिव्यक्त होती है. ऐसी जागरूकता जरूरत को तो देखती है पर लालसा को उभरने ही नहीं देती ...यानि आम चुराकर खाने के ख्याल को (लालसा) अजन्मा ही रख देती है. इसी तरह जरूरत के पक्ष में ...(यदि कसकर भूक लगी हो और कोई साधन या प्रयत्न संभव न हो तो) रोटी को मांग कर खाने, और.... यदि मांगने जैसी भी परिस्थिति न हो तो, ..सामने धरी रोटी को उठाकर खानेपर भी, अन्तःस्थ में किसी पापभाव को उभरने नहीं देती. संक्षेप में, आध्यात्मिक जागृति, क्षण प्रति क्षण या तात्कालिक परिस्थिति के अनुसार बदलते हुए   हमेशा परमोचित के प्रवाह में ही रहती है, जबकि सामाजिक न्याय-बुध्दी समकालीन सामाजिक मान्यताओं एवं अपेक्षाओं का समाधान करते हुए, व्यक...

तुलना जरूरी भी और खतरनाक भी

भौतिक तल पर नाप तौल तो जरूरी हैं... तुलनात्मक शोध और उसपर आधारित तकनिकी आविष्कारों के के काम आतें हैं. परन्तु मनोवैज्ञानिक तुलनाओं ने,.... स्पर्धा, इर्षा, द्वेष, घृणा, संघर्ष, भ्रष्टाचार, चालबाजियां, झगड़े और युद्ध जैसे विकारों और दुष्परिणामों का सिलसिला चालू कर दिया है. व्यक्तित्व विकास, सामाजिक प्रतिष्ठा और महत्वाकांक्षी बनना .. जैसी मन-लुभावन बातों में उलझकर आदमी का मन अपनी मनोवैज्ञानिक प्रगति की सोचने लगा और उसी क्षण-बिंदु से ऊपर दर्शाए मनोवैज्ञानिक विकारों और दुष्परिणामों को निमंत्रण दे बैठा -अरुण