‘श्रद्धा’ का तात्पर्य -
‘श्रद्धा’ यह शब्द अक्सर बहुत ही ढिलाई, असावधानी और गैरजिम्मेदाराना तरीके से इस्तेमाल किया जाता है. जब उसका स्व-मन भी उसकी अपनी कृति का समर्थन न करता हो, उस समय भी आदमी अपने बचाव में ‘श्रद्धा’ का बहाना ढूँढ लेता है. उसे मालूम है कि...’मेरी श्रद्धा है’- ऐसा कहकर वह कुछ भी करे तो समाज उसपर कोई संदेह जतलाने का साह्स न कर सकेगा. भय-लालच-आदतवश या किसी कार्यसिद्धि के लिए की गई कृती को भी आदमी श्रद्धा से ही किया गया काम समझता रहता है. श्रद्धा ऐसी परिपूर्ण निसंदिग्धता की मनोस्थिति को कहते है, जिसमें आदमी दवारा होने वाली कृती उसकी स्पष्ट-दृष्टि, स्पष्ट-दिशा, स्पष्ट समझ और उसके आत्मबल की परिचायक होती है. श्रद्धावान अपनी ही व्यापक और गहन दृष्टि के सहारे चलता है, किसी दूसरे के भरोसे या ज्ञान की उसे जरूरत नहीं होती. -अरुण