आध्यात्मिक जागृति सामाजिक न्यायोचितता से भी ऊपर उठकर
समाज
अपेक्षा करता है कि....आदमी अपने आचरण में सामाजिक मान्यताओं को भंग न होने दे. आम
खाने की इच्छा हो तो खरीदकर खाये, चुराकर नहीं...चुराकर खाने का ख्याल भी आए तो भी
उस ख्याल को दबा दे ऐसे प्रतिरक्षात्मक तरीके से कि ..मन भी अधिक क्षतिग्रस्त न हो
सके.
अध्यात्मिक
जागरूकता, सामाजिक मूल्यों की उपयुक्ता और मन की मांग, दोनों पर एक साथ जागते हुए,
दोनों से ऊपर उठे आचरण के रूप में अभिव्यक्त होती है. ऐसी जागरूकता जरूरत को तो
देखती है पर लालसा को उभरने ही नहीं देती ...यानि आम चुराकर खाने के ख्याल को
(लालसा) अजन्मा ही रख देती है. इसी तरह जरूरत के पक्ष में ...(यदि कसकर भूक लगी हो
और कोई साधन या प्रयत्न संभव न हो तो) रोटी को मांग कर खाने, और.... यदि मांगने
जैसी भी परिस्थिति न हो तो, ..सामने धरी रोटी को उठाकर खानेपर भी, अन्तःस्थ में किसी
पापभाव को उभरने नहीं देती.
संक्षेप
में, आध्यात्मिक जागृति, क्षण प्रति क्षण या तात्कालिक परिस्थिति के अनुसार बदलते
हुए हमेशा परमोचित के प्रवाह में ही रहती है,
जबकि सामाजिक न्याय-बुध्दी समकालीन सामाजिक मान्यताओं एवं अपेक्षाओं का समाधान
करते हुए, व्यक्तिगत संतुष्टि का मार्ग प्रशस्त करती है.
-अरुण
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