एक चिंतन
खुली सड़क पर दौड़ती कार में बैठकर कार की गति को महसूस किया जाता है . हवा का दबाव, उसकी मार, पीछे दौड़ते मालूम पड़ते पेड़ों की गति .... सब मिलकर कार की गति का अनुभव करा देतें हैं. इसके लिये स्पीडो मीटर देखना जरूरी नहीं. मान लीजिए यदि किसी कारण/गलती से स्पीडो मीटर यह संकेत दे की कार 'चल नहीं रही' तो क्या हम इसे स्वीकार कर लेंगे? स्पीडो मीटर गति का सही सही आंकड़ा जानने के लिये है. वह गति का एकमेव प्रमाण नहीं है. सारे तर्क, विश्लेषण, मापन, गणन, बुद्धि के मित्र है. बुद्धि के समाधान के लिये होतें है. उनका भी अपना विशेष महत्व है. ज्ञान में छुपे व्यक्तिनिष्ठता के प्रभाव को हटा कर वस्तुनिष्ठ निष्कर्षों तक पहुँचाने में वे सहायक होते है. परन्तु रहस्य-दृष्टा पूर्णनिष्ठतासे जगत को देखता है. उसके देखने में देखने वाला एवं दिखने वाला, दोनों का एकसाथ एवं एकही क्षण अंतर्भाव है. इसीलिये जिस सुख दुःख को लेकर दुनिया में इतना उहा पोह होता दिखता है, मनस वैज्ञानिक भी इतना विश्लेषण करते दिखते हैं , रहस्य-ज्ञाता की दृष्टी में (अनुमान, तर्क या मत में नहीं ) सुख दुःख का कोई अस्तित्व ही नहीं है. वह तो मन का अविष्कार है.
प्यासे को प्यास की अनुभूति ही पानी तक ले जाती है. वह विश्लेषण पर निर्भर नहीं है. उसे अगर अपनी प्यास सिद्ध करने को कहा जाए, तो वह वस्तुनिष्ठ विश्लेषण में समय गवांते हुए प्यासा ही मर जाएगा. प्रत्यक्षप्रतीति महत्व की है और विश्लेषण भी. परन्तु कब क्या हो इसकी समझ तो सम्यक बुद्धि (प्रज्ञान) के पास ही है.
दुखी व्यक्ति दुःख का अनुभव करता है पर दुःख के स्रोत को नहीं जानता. मनोवैज्ञानिक दुःख के स्रोत को जानता है पर स्रोत के स्रोत को नहीं जानता. दार्शनिक सारे फेनोमेनों (हकीकत) को समझते हुए उसपर भाष्य करता है. परन्तु रहस्य-दर्शक सारी प्रक्रिया को स्व-ज्ञान के माध्यम से प्रत्यक्ष देखता है. उसके लिये ये बातें स्वयंसिद्ध है. उसके भीतर, दुखः उभरने के पहले ही उसपर ध्यान जाते, उभरने से थम जाता है क्योंकि उसके ध्यान को सारे स्रोतों का मूल स्रोत दिखाई पड़ता है.
........................................................................................ अरुण
प्यासे को प्यास की अनुभूति ही पानी तक ले जाती है. वह विश्लेषण पर निर्भर नहीं है. उसे अगर अपनी प्यास सिद्ध करने को कहा जाए, तो वह वस्तुनिष्ठ विश्लेषण में समय गवांते हुए प्यासा ही मर जाएगा. प्रत्यक्षप्रतीति महत्व की है और विश्लेषण भी. परन्तु कब क्या हो इसकी समझ तो सम्यक बुद्धि (प्रज्ञान) के पास ही है.
दुखी व्यक्ति दुःख का अनुभव करता है पर दुःख के स्रोत को नहीं जानता. मनोवैज्ञानिक दुःख के स्रोत को जानता है पर स्रोत के स्रोत को नहीं जानता. दार्शनिक सारे फेनोमेनों (हकीकत) को समझते हुए उसपर भाष्य करता है. परन्तु रहस्य-दर्शक सारी प्रक्रिया को स्व-ज्ञान के माध्यम से प्रत्यक्ष देखता है. उसके लिये ये बातें स्वयंसिद्ध है. उसके भीतर, दुखः उभरने के पहले ही उसपर ध्यान जाते, उभरने से थम जाता है क्योंकि उसके ध्यान को सारे स्रोतों का मूल स्रोत दिखाई पड़ता है.
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