आजादी के साठ साल बाद भी .....

साठ बरस से पिंजड़े का बस द्वार खुला है
बिन पंखों का पंछी उसमे पड़ा हुआ है

यहाँ गरीबी गाना गाये आजादी के
हर दिन हर पल डगर चले जो बर्बादी के
बेकारी से हाँथ युवा का सडा हुआ है
साठ बरस से .... 1

हर मजहब से ऊंचा उठकर संविधान है
दो मजहब के बीच द्वेष का ही विधान है
धर्म यहाँ सर पर सवार बन खड़ा हुआ है
साठ बरस से .... 2

भेदभाव के बैरी बस सदभाव भेदते
'अंतर' को अलगावभरे स्वर आज छेदते
हर दिवार पर नारा कोई जड़ा हुआ है
साठ बरस से .... 3

रोज किसी का स्मरण किसी का जनम मनाते
आदर्शों पर चलने की बस टेप बजाते
कार्यक्रमों से इन्ही देश यह जुड़ा हुआ है
साठ बरस से .... 4

रटे रटाये भाषण से हम ऊब चुके हैं
ऊँची ऊँची बातों में हम डूब चुके हैं
कड़े परिश्रम का नारा बस कड़ा हुआ है
साठ बरस से ... 5
साठ बरस से पिंजड़े का बस द्वार खुला है
बिन पंखों का पंछी उसमे पड़ा हुआ है

(यह कविता आजादी के ४० साल पूरे होने पर लिखी गई थी.
मुखड़े में 'चार दशक से ... ' की जगह
'साठ साल से.... ' इतनाही परिवर्तन किया गया है.)
............................................................... अरुण

Comments

सार्थक बातें कही आपने ..साठ साल बाद भी इन हालातों पर अफ़सोस ही होता है
अजय कुमार झा
सामयिक व बहुत बढ़िया रचना है।बधाई। आज कल यही हमारे चारों ओर हो रहा है...

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