वास्तविकता में सागर का सारा जल एक का एक है. सारी लहरें भी उसी जल की ऊपरी सतह हैं और प्रत्येक लहर भी उन लहरों से भिन्न नही, परन्तु अगर हरेक लहर अपने भीतर, मनुष्य की ही तरह, अहंकार का भ्रम जगा ले तो फिर सागर एक गहरे संभ्रम और अराजकता के आधीन चला जाएगा. भले ही लहर सागर हो, परन्तु लहरों के आपसी संबंधो के योग से सागर का जन्म नही होगा ...... ऊपर के उदहारण के आधार पर हम कह सकते हैं कि हरेक व्यक्ति सकल सृष्टि ही है परन्तु अहंकार के भ्रमवश वह अपने को भिन्न समझता है. अहंकार के कारण ही इन व्यक्तियों के बीच एक व्यावहारिक/भ्रम-जन्य संबंध तैयार होता है. इन्ही आपसी संबंधों के योग से समाज नामक भीड़ बनती है, वास्तविकता में भीड़ होती ही नही, फिर भी भीड़ को बदलने या उसमें सुधार लाने की बातें की जाती रही हैं. इस बात को समझे बिना कि भीड़ में सुधार व्यक्ति की समस्या का हल नही है, समाज को बदलने की कोशिशें जारी है. -अरुण