अस्तित्व की नजर में मनुष्य अज्ञानी
‘जानना’ स्पर्श से-देख-सुन रस-गंध से और
ऐसे जाने को बूझना मन-बुद्धिसे
-दो अलग घटनाएँ हैं.
मनुष्य छोड़ सभी प्राणी
जानने से ही काम चला लेते हैं और
इस कारण किसी संभ्रम या संघर्ष में नही उलझते.
अकेला मनुष्य बूझने में रूचि लेता है और अपने
बूझजन्य ज्ञान/जानकारी में इजाफा करता रहता है.
परन्तु इस कारण वह ‘जो जैसा है उसे वैसा ही’ देख पाने की
क्षमता से दूर हट जाता है फलतः कुछ भी जान नही पाता
यानी जानने पर ठहर ही नही पाता.
सिर्फ ज्ञानार्जन के माध्यम से अपने और समाज के हित
में अपनी बुद्धि का
उपयोग करता रहता है. समाज से उसे प्रतिष्ठा मिलती है
परन्तु अस्तित्व (यदि सोचता होगा) तो
ऐसे ज्ञानी व्यक्ति को ‘अज्ञानी’ ही मानता होगा
- अरुण
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