आज का दोहा ...

जीते जी मै खो गया दुनियादारी खींच।
एक गुफा फैली रही, जनम मरण के बीच।।

जनम के साथ ही साथ नींद (गुफा) की प्रक्रिया शुरू हो गई। पृथ्वी और आकाश के बीच रहते हुए भी उसकी ओर से ध्यान हटने लगा। प्रकृति से हटकर संस्कृति द्वारा ढलने लगे। समाज नाम का एक रोग संक्रमित हुआ। सामाजिक संवाद की भाषा मिली। तरीका मिला समाज में रहने का। रिश्ते बने अपने पराये के। प्रेम करना सीखा अपनो के साथ व बैर पालना सीखा परायों के विरूद्व। संगठन के नाम पर अलगाव सीखा। जो वैश्विक है उसे देश-परदेश, घर-द्वार, जात-परजात में बांटना सीखा। परम-प्राण के टुकडे हुए और इन टुकडों के सहारे जीना सीखा। परम शान्ति भंग हुई और दौड़ शुरू हुई मन की शान्ति, घर की शान्ति, नगर की शान्ति, देश और विश्व-शान्ति के पीछे।
जीवन टूटा और उसके टुकडों को जीवित रखने हेतु संघर्ष शुरू हुआ। जहाँ संघर्ष वहां भय, वहां चिंता। जहाँ भय वहां स्वप्न, वहां मोह सुख का तथा साथ ही आशंका दुःख की। इसतरह प्रकृति से नाता टूटा और हम भी टूटे भीतर-बाहर। नींदमयी जीवन की धार पर बहते हुए खो गए, जागृत-जीवन से कोसो दूर।
............................................................................................................................................... अरुण

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