दो दोहे

समाज और परिवार द्वारा संस्कारित मन कभी भी आजाद नही है
पहले मिर्ची खाय दे सो फिर जले जुबान
मीठा तीता सामने चुन मेरे मेहमान

मन को साधन बना कर जो जी पाए वह आनंदित है
जो मन में उलझ गया वह त्रस्त है
चढ़ चक्के पर होत है दुनिया भर की सैर
जो चक्के में खो गया उसकी ना कुई खैर
.................................................................. अरुण

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