जे. कृष्णमूर्ति उपनिषदिक ऋषि तो ओशो ज्ञान-लीलाओं के धनी



इस सच्ची भावना के साथ कि सामने बैठा साधक अपनी सत्य-खोज के प्रति गंभीर है, कृष्णाजी (जे कृष्णमूर्ति) केवल ज्ञान-तत्व या सत्व को ही अपने सह-चिंतन का विषय बनाते है, अनावश्यक सदर्भों, उदाहरणों, सिंद्धांतो और पूर्व-प्रस्थापित मार्गों के जिक्र को टालते हैं
जबकि-
ओशो अपनी बात को साधक तक पहुँचाने के लिए, साधक जहाँ खड़ा है उस पृष्ठभूमि को बिना टाले वहीं से अपनी बात शुरू करते हैं. साधक के भीतर जो भी अनावश्यक भरा पड़ा है, उसे बड़े सहज, स्वाभाविक, सरल और उसमें स्पष्ट दृष्टि जगाते हुए उससे दूर कर देते हैं, और फिर, साधक स्वयं ज्ञान-तत्व या सत्व के सेवन के लिए प्रेरित हो जाता है.
थोड़े में,
कृष्णाजी चाहते हैं कि केवल उन्ही से संवाद हो जो खोज के प्रति गंभीर है
जबकि –
ओशो साधक को ठीक समझ तक लाने के लिए जो जरूरी हो वह सब करते दिखते हैं
कृष्णाजी उपनिषद के ऋषियों जैसे है जबकि ओशो हैं कृष्ण-सम ज्ञान-लीलाओं के धनी
-अरुण   
      

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