संत भी संसारिकताजन्य मनोविकारों के शिकार



सभी मनोविकार, माया-मोह (मूल-भ्रम) की ही संताने हैं,
ये विकार संतत्व-प्राप्त लोगों को भी खा जाते हैं,
उनका मोह दिखने में भले ही अलग दिखता हो
पर स्वभावतः वह मोह ही होता है......
संत के इर्दगिर्द जमा होनेवाली भीड़,
बड़ी तादाद में आनेवाला चढ़ावा, मिलनेवाला
राजशाही सन्मान, बढती संगठन शक्ति ....
ऐसी कई बातें उनके संतत्व को खा जाती है
और वह भी छुपी तर्ज में अहं-गीत गाने लगता है
जिन्हें ऐसे लोगों पर अपनी भक्ति जताना,
एक सुरक्षा-उपाय या गौरवपूर्ण कार्य प्रतीत होता है
वे उन संतों के अहं को खुराक देते रहते हैं
-अरुण


Comments

Popular posts from this blog

मै तो तनहा ही रहा ...

यूँ ही बाँहों में सम्हालो के

पुस्तकों में दबे मजबूर शब्द