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Showing posts from December, 2010

खोज भगवान की

भगवान खोजने से मिलने वाला नही खोजने वाले को खोजनेपर भगवान मिल जाए शायद ................................. अरुण

मन की पकड़

मन किसी भी वस्तु, घटना, प्रसंग या स्थिति को शुद्ध समझ से देख नही पाता शब्द नाम और संकल्पनाओं की गति में मन हमेशा उलझा हुआ है ‘ जो जैसा है ’ उसे वैसा ही देखने की जगह देखने पर जो प्रतिमा बनती है उस प्रतिमा को ही मन वास्तविकता का स्थान देता है परिणामतः शुद्ध समझ बन ही नही पाती ............................................ अरुण

अहंकार से अहंकार टकराये

अहंकार करता दुजा अपने मन पर घात अगला कद ऊँचा करे हम खुद छोटे पात ..... यदि सामनेवाला आदमी हमारे सामने अहंकार से भरा आचरण करता हो और यह बात अगर हमें चुबती हो तो यह स्पष्ट है कि उसका आचरण हमारे अहंकार को ठेस पहुँचा रहा है सामने वाला खुद की स्तुति करे यह हम सहन कैसे कर सकते हैं क्योंकि वह जब अपना कद बढाता है हमें हमारा कद छोटा होता मालूम पडता है आपसी संबंधों की यह पेचीदगी समझने जैसी है ................................. अरुण

व्यक्तित्व से छुटकारा ही मुक्ति है

शख्सियत घुलती नही है प्राण-धारा में ऊपरी है रंग, पानी पर नही चढ़ता ...................................................अरुण

आईना और जीवन

आईने के भीतर आईने का प्रतिमा-विरहित शुद्धतमरूप देखने के लिए जब भी झांकता हूँ वहाँ अपनी ही प्रतिमा के सिवा मुझे कुछ नही दिखता .. ये तो आइना है जिसका सरोकार किसी से भी नही जो भी सामने आए प्रतिबिंबित तो हो जाता है पर किसी भी प्रतिबिम्बन को आइना पकड़ कर नही रखता जीवन का शुद्धतम स्वरूप ऐसा ही प्रतिमा विरहित प्रतिबम्बन मात्र है ........................................ अरुण

पूजा होती संघ की लेकर झूठ उपाय

कई पुजारी सत्य के मिलकर संघ बनाय पूजा होती संघ की लेकर झूठ उपाय ........... सत्य पूजने की नही खोजने की बात है सत्य- खोज पूरी तरह से निजी है, संगठनात्मक नही जहाँ संगठन बना राजनीति या झूठ का अवतरण होना लाजमी है ................................. अरुण

सुगंध और लोगों की भीड़

यहाँ का माहोल, यांत्रिक भीड़ शोरोगुल और लोगों में चेहरों पर दिखता यांत्रिक अहोभाव देखकर लगा मानो कोई फूल यहाँ उमड़ पड़ा होगा अपनी सुगंध को चहुँओर फैलाते इधर उधर से लोग खींचते चले आये होंगे उस सुगंध के कारण समय के बीतते फूल मुरझाया और कालांतर से गंध भी खो गई समय के आकाश में परन्तु भीड़ का सिलसिला चालू रहा भीड़ ने अपनी ही गंध को उस सुनिसुनायी सुगंध का नाम दिया अब भीड़ को देखकर व्यापारियों की भी रूचि बढ़ी उन्होंने खड़ा किया भव्य मंदिर चढाओं की परम्परा चलाई प्रसाद बांटना शुरू किया भीड़ इतनी बढ़ी कि उस सुगंध के नाम से होटलों, बसों, और टूरिस्ट सेंटरों का भी धंधा चल पड़ा है अच्छी तरह ................................................... अरुण

राजनीतिज्ञों की मूल कमजोरी

राजनीतिज्ञों की मूल कमजोरी यह है कि वे हमेशा या तो सत्ता का अवसर चूकने या पाई हुई सत्ता खो देने के भय से ग्रस्त है और इसीलिए अपने मन कि बात सीधे सीधे उजागर नही कर पाते सत्ताधारी भी डरा है और विरोधी भी जिनकी मौलिक धारण संविधान से मेल नही खाती वे भी संविधान में अपना विश्वास जताते है और जो संविधान की मूल मान्यता से हटकर अपनी राजनीति चलाते है वे भी दुहाई संविधान की ही देते रहते हैं निष्कर्ष यह कि जिनका मन कुछ और तो आचरण कुछ और - ऐसों को ही राजनीतिज्ञ कहा जाता है ............................................... अरुण

एक कैफियत वेदना भरी

क्यों न की मेरे अंतिम यात्रा की शुरुवात उसी दिन जिस दिन मैं इस धरती पर आया क्योंकि उसी दिन से तो शुरू कर दिया आपने गला घोटना मेरी कुदरती आजादी का उसी दिन तो शुरू किया आपने मेरे निरंग श्वांसों में अपनी जूठी साँस भरकर उसमें अपना जहर उतारना उसी दिन से तो मुझे कैद कर लिया आपके विचारों, विश्वासों और आस्थाओं ने आपने बड़ा किया, बढ़ाया मुझे एक इस अच्छे-भले कैदखाने में अच्छी तरह से जीना सीखाया यह कैदभरी जिंदगी, मुझे सामान बनाया सामाजिक प्रतिष्ठा का अब पहुँचने जा रहा हूँ अंतिम छोर पर उस राह के जिसका आरम्भ कभी हुआ ही नही .......................................... अरुण

सत्य का स्पर्श जीवंत प्रवाह में

सत्य का स्पर्श जीवन के जीवंत प्रवाह में ही होना है सभी संबंधों में, अंतःक्रियाओं में. रोजमर्रा जिंदगी में ही होना है जैसे नदी का स्पर्श उसकी बीच-धारा में है तट पर बैठकर उसकी पूजा आराधना जप-जाप करने में नही ...................................... अरुण

जागरण कों भी जब होश आता हो .....

सपने और वास्तव के बीच का भेद नींद और जागरण की स्थिति के भेद द्वारा समझाया जाता है जब जागरण में भी नींद सक्रीय रहती है तो जागरण कों निद्रस्थ- जागरण कहना चाहिए प्रायः इसी निद्रस्थ -जागरण में हम सब जी रहे हैं ऐसे जागरण कों भी जब होश आता हो तो उस स्थिति कों ही बुद्धत्व कहते होंगे शायद ...................................................................... अरुण

अच्छापन या सच्चापन

सभी धर्मों का आशय इतना ही है कि आदमी में सत्पुरुष अवतरित हो ऐसा होने के लिए आदमी क्या करे, यह कोई भी धर्म न सिखाता है और न सिखा सकता है इस प्रकार की सीख देने के प्रयास में लौकिक अर्थ में कई तथाकथित धर्म प्रचलित हुए पर सभी अधिक से अधिक ‘ अच्छा ’ पन सिखा सके ‘ सच्चा ’ पन नही, क्योंकि सच्चापन आदमी की अपनी निजी खोज से फलता है किसी सामाजिक अभियान से नही ...................................................... अरुण

सच का सच

सच का सच जब कहना चाहा सच्चों ने मुंह फेर लिया इतनी सच्ची कडवी लगती, अच्छों ने मुंह फेर लिया ............ सच्ची बातें प्रायः सभी को अच्छी लगती है जैसे ‘ ईश्वर की नजर में सभी एक हैं कोई भेद नही- न जाति का, न धर्म का, न किसी तरह का ’’ इस तरह के विचार अच्छों के ह्रदय को छू लें यह तो स्वाभाविक है परन्तु यदि ईश्वर के अस्तित्व को लेकर कोई संदेह व्यक्त किया जाए तो अच्छे भले लोग भी दुखी हो जातें हैं सच का सच जानने और कहने का साहस प्रायः सब में नही होता ................................................. अरुण

संतुलित जीवन

जो हमें थामे हुए है वह है हमारा प्राकृतिक (आजाद) धर्म जिसे हम थामे हुए है वह है हमारा नीति=नियमाधीन (आरोपित) धर्म ऐसा धर्म जो हमें हमारी प्राकृतिक आजादी के खिलाप खड़ाकर कमजोर बना देता है, हमारी मूल प्रवृति को दबाता है ताकि वह हमपर आसानी से सत्ता बनाये रख सके नैसगिक धर्म है हमारी आजादी और नीति-नियमों वाला धर्म है हमारी आजादी पर लगाम कसने वाला, पर समाज को भानेवाला, समाज ने रचा हुआ तथाकथित धर्म ........ जो अपनी मूल आजादी से जुड़े हुए समाज-धर्म निभाने का कौशल्य रखते हैं उनका जीवन संतुलित है जो अपनी मूल-प्रवृत्ति के खिलाफ समाज-धर्म को ही सही माने में धर्म समझकर जी रहे हैं उनका जीवन ढकोसले से भरा हो तो आश्चर्य नही ..................................................... अरुण

शांति की बात, अशांति का माहोल

हिंदू जगत में शांति चाहता है इस्लाम भी शांति का ही पक्षधर है दूसरे तथाकथित धर्म भी शांति के लिए ही हैं फिर भी एक दूसरे को सामने पाकर अशांत हैं बात तो अयुद्ध की कर रहे है पर जी रहे हैं युद्ध के माहोल में ........................................................ अरुण

होश सही, बेहोशी गलत

होश में जो भी होता है सही है बेहोशी में होनेवाली हर बात है गलत होश की नजर में हर रास्ता साफ़ है सो कदम गलत जगह पड़ते ही नही बेहोशी सोयी रहती है विचारों में, कल्पनाओं में, अच्छे -बुरे या सही - गलत के चयन में कुछ पाने में, कुछ छोडने में और इस कारण भटक जाती है धुंधले रास्तों पर

ध्वनि है शब्द, संकेत है अर्थ

सृष्टि ने दिए ध्वनि नाद और आकार के रूप में शब्द जीव ने दिया उसे संकेत या मन्शा के रूप में अर्थ इसी से बनी सारी भाषा और इसी से बना भाषाकार ... सृष्टि न होती तो जीव न होता और न ही होते शब्द और अर्थ और न ही होते भाषा और भाषाकार ................................... अरुण

जिंदगी छोटी, बहुत छोटी.....

जिंदगी छोटी बहुत छोटी, बहुत छोटी है ना समझ पाए जेहन जिसकी पकड़ मोटी है और इसीलिए जेहन या मन से पार जाकर ही जिंदगी को जाना जाता है .......................................................... अरुण

बुद्धिमान और बुद्ध

केवल बाहर दुनिया को देखनेवाली बुद्धि बुद्धिमान या पंडित का बहुमान पाने योग्य है परन्तु जब वह स्वयं को देखती है बुद्ध बन जाती है ........................................... अरुण

आशय एक, अभिव्यक्ति भिन्न

नींद ही नींद से करती बातें जागनेवालों में होती नही चर्चा कोई .... देखना बंद हुआ बोलना हुआ चालू ये जहाँ बोलनेवालों से ही आबाद हुआ ..... ये घना फैल चुका है लफ्जों का नगर के समझ लफ्जों तले घुंटती मरी जाती है ..... ख़ामोशी- भीड़ में रहती है अकेली न हुई हर दो लफ्ज के दरमियान बसा करती है ..... बोलने और सुनने वाले में न फर्क कोई एक ही जहन निभाता, दो अलग किरदार .............................. ..................... अरुण

आशय एक, अभिव्यक्ति भिन्न

नींद ही नींद से करती बातें जागनेवालों में होती नही चर्चा कोई .... देखना बंद हुआ बोलना हुआ चालू ये जहाँ बोलनेवालों से ही आबाद हुआ ..... ये घना फैल चुका है लफ्जों का नगर के समझ लफ्जों तले घुंटती मरी जाती है ..... ख़ामोशी- भीड़ में रहती है अकेली न हुई हर दो लफ्ज के दरमियान बसा करती है ..... बोलने और सुनने वाले में न फर्क कोई एक ही जहन निभाता, दो अलग किरदार

सत्य की खोज को समर्पित

एक दोहा मछली से क्या पूछना पानी कैसा होत पानी जिसके प्राण हैं पानी जीवन ज्योत ........... एक चिंतन मै कौन हूँ ? – इस सवाल का कोई जबाब नही यह एक सघन-गहन खोज है जिसका कोई अंत नही .............................................. अरुण

वही जीवंत है

सामने खड़े वर्तमान को देखना हो ही नही पाता क्योंकि वर्तमान में दिखता हुआ बीता और भविष्य ही सारा ध्यान आकर्षित कर लेता है जो भूत और भविष्य में विचरते हुए भी वर्तमान के स्पर्श को हर क्षण महसूस करता रहता है वही जीवंत है .................................... अरुण