चलती को गाड़ी कहे ...

चलती को गाड़ी कहे.......

अस्तित्व प्रवाही रहा है- बहता रहा है, बह रहा है और रहेगा. वह लगातार क्षण प्रति क्षण बदल रहा है. कहीं भी कभी भी ठहरा हुआ नही है. जिसे हम देह कहते हैं या जिसे हम पदार्थ कहतें हैं, वह भी पल पल सुप्त या स्पष्ट रूप से बदलता जान पड़ता है. इस क्षण जो चीज जैसी है उस क्षण वैसी नही रहती. अभी जो जिया अगले क्षण मरा एक नया जन्म लेते हुए. लगता है - जन्म-मृत्यु एक दूसरे में मिले हुए हैं. एक दूसरे में रूपांतरित हो रहे है, इस ढंग के रूपांतरण की निष्पत्ति है - निरंतर चला आता हमारा यह जीवन प्रवाह.

प्रवाह में स्थिरता की कल्पना भी नही की जा सकती फिर भी आदमी की उत्क्रांति-यात्रा स्थिरता की कल्पना इजाद करती रही. उसने, 'चलती' में 'गाड़ी' (गाड़ी हुई ) बनना चाहा. जो नही हो सकता उत्क्रांति ने वह करना चाहा. ऐसी चाह (या Natural selection) मनुष्य के लम्बे उत्क्रांति क्रम में क्यों पैदा हुई ये कहना कठिन है.

परन्तु अपने प्रति दिन के जीवन को निहारने पर एक बात स्पष्ट होती है. आदमी जिन बातों को स्थिर कहता है वे अस्तित्व की नजर में स्थिर नही है. फिर भी नित्य के व्यवहार में, संबंधों में, संवाद में आदमी उसका उपयोग स्थिर इकाई के रूप में करता दिखाई देता है. शायद, अस्तित्व मनुष्य की इस 'समझ' से बेखबर हो. क्योंकि अस्तित्व ने अपने को ठहरा नही पाया. अस्तित्व को शायद मानव- मन का भी पता न हो. मानव मन का पता शायद मानव को ही हो, वह भी प्रत्यक्ष रूप में और केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही.

मानव-मन जिन बातों से अपने स्वयं के होने का हमें (मनुष्य को ) परिचय देता है वे हैं - विचार, मनन, अहम-पर भाव, गत घटनाओं का प्रतिमा-संचय तथा उन प्रतिमाओं के उपयोग से रची जाने वाले भविष्य की कल्पना या नियोजन...... इन सभी विषयों के अंतर- आन्दोलनों से मानव का भावना व्यापार, सामाजिक सम्बन्ध-व्यवस्था, ज्ञान - यंत्रणा एवंम भाषा प्रपंच तैयार होता हुआ मालूम पड़ता है. वैसे तो मस्तिष्क की कई क्षमताएं हैं जिनमे से स्मरण शक्ति तथा बुद्धि का योगदान मन- निर्मिती की प्रक्रिया में विशेष रूप से दिखाई देता है.

कल्पना करें यदि मनुष्य की स्मृति बहुत छोटी होती, केवल कुछ क्षण पूर्व की ही बातें उसे याद रहती तो क्या होता ? उस स्थिति में मनुष्य की व्यक्तित्व-धारणा, सम्बन्ध-रचना, भाषा-रचना , तुलना से उत्पन्न भली बुरी भावनाओं जैसी बातों का क्या होता?

शायद संत कबीर जैसा सरल व्यक्तित्व 'गाड़ी' में गाड़ीपन न देखकर उसका असली स्वरूप यानि चलन, गति, बदलाव या प्रवाह देखता रहा है. परन्तु मुझ जैसे असरल को ( संस्कारित) को 'चलती' में 'गाड़ी' का आभास है जो मेरी एक आदत बन गई है. सांसारिक जीवनक्रम में ऐसी आदतों की ही मुझे जरूरत है.

उपर्युक्त बातें चिंतन में उभरें विचारों के आधार पर लिखी गई है. किसी वैज्ञानिक तथ्य का दावा करने के लिये नही. यह एक चिंतन मात्र है, इसपर केवल विचार हो, विवाद नही.
...................................................................................................... अरुण

Comments

Udan Tashtari said…
बढ़िया चिन्तन!!

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