समय की धार पर बहाने की कला
तुम सिकुडना भी चाहते हो और पसारना भी, अपनी पहली साँस से अबतक की सारी उम्र को संकुचित बना कर रखा है तुमने , अपनी पहचान में, इस पहचान को कुदरत पहचानती ही नही सिर्फ तुम्ही हो जो उसे जानते हो दूसरी तरफ, मंदिरों देवालयों एवं अध्यात्मिक प्रवचनों में चर्चित परमात्मा में पसरकर भक्तिभाव से अपनी पहचान को उसमें डुबो देना भी चाहते हो इन दो परस्पर विरोधी दिशाओं में खिंचे जा रहे हो और इस वजह तुम्हारी सारी जिंदगी संघर्ष में उलझी है अच्छा हो अगर, तुम अपने विशालतम रूप पर जागते हुए अपने इस अति-सूक्ष्म अस्तित्व की नौका को समय की धार पर बहाने की कला जान जाओ -अरुण