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Showing posts from February, 2012

समय की धार पर बहाने की कला

तुम सिकुडना भी चाहते हो और पसारना भी, अपनी पहली साँस से अबतक की सारी उम्र को संकुचित बना कर रखा है तुमने , अपनी पहचान में, इस पहचान को कुदरत पहचानती ही नही सिर्फ तुम्ही हो जो उसे जानते हो दूसरी तरफ, मंदिरों देवालयों एवं अध्यात्मिक प्रवचनों में   चर्चित परमात्मा में पसरकर भक्तिभाव से   अपनी पहचान को उसमें डुबो देना भी चाहते हो इन दो परस्पर विरोधी दिशाओं में खिंचे जा रहे हो और इस वजह तुम्हारी सारी जिंदगी संघर्ष में उलझी है अच्छा हो अगर, तुम अपने विशालतम रूप पर जागते हुए अपने इस अति-सूक्ष्म अस्तित्व की नौका को समय की धार पर बहाने की कला जान जाओ     -अरुण      

Think global, act local

अंग्रेजी का यह वाक-प्रचार ( Phrase) पर्यावरण, नियोजन एवं व्यापार के सन्दर्भ में प्रचलित है मै इसे आध्यत्मिक सोच से जोड़कर देख रहा हूँ ...... सृष्टि का अभिन्न हिस्सा होते हुए भी अपनी व्यक्तिगत काल्पनिक परन्तु व्यावहारिक दुनिया में खो जाने के कारण अपने सृष्टि- अभिन्नत्व को मनुष्य भूल बैठा है यदि वह अपने अभिन्नत्व( Global) पर जागते ( replace ‘think’ by ‘aware’ ) हुए व्यक्तिगत ( local) कृति करता रहे तो उसकी ऐसी कृति में एक गुणात्मक ( qualitative) बदलाव जन्म लेगा    -अरुण

मन एक मिलीजुली अवस्था है

मनोविज्ञान ने चेत,अर्धचेत और अचेत जैसी तीन अवस्थाओं में चेतना को भले ही बाँट दिया हो परन्तु अनुभव के तल पर एक ही समय मनुष्य तीनों ही अवस्थाओं में विचरता रहता है मस्तिष्क में विचार, गतानुभव का स्पष्ट अस्पष्ट स्मरण, भावी कल्पनाओं का आवागमन जैसी बातें एक ही समय, मनुष्य के आचरण से झलकती रहती हैं ध्यानावस्था इस आंतरिक अवस्था को उजागर करती है मन एक मिलीजुली अवस्था है -अरुण     

आधी अधूरी समझ

जीवन के सवालों को ठीक से न देखा, न सुना, न जाना न समझा और हल खोजने जुट गये क्या ऐसे में किसी को कोई हल या समाधान मिला है? सवालों की गहराई में उतर जाने और उसे पूरी तरह देख पाने का जो साहस जुटा पातें हैं वे सवाल के नही बल्कि हल या समाधान के तल पर ही पहुँच जाते है इसी लिए कहा जाता है कि सवाल का हल सवाल के भीतर ही दबा है - अरुण   

व्यक्तिगत और सृष्टिगत अस्तित्व

पेड, पौधे और जंगल की तरह ढलकर सृष्टि में पुनः लीन हो जाना अब संभव नही है अब तो केवल उस सीमा रेखा पर बने रहना संभव हो पाए शायद जहाँ से स्वयं के व्यक्तिगत और सृष्टिगत अस्तित्व के भेद को स्पष्टतः निहार संकू -अरुण

तत्व से जानना

किसी भी चीज को जानने के लिए पांच इन्द्रियों का उपयोग कर अर्जित की गई संवेदना-सामग्री को पूर्व-अर्जित सूचना/अनुभव के सन्दर्भ में समझा ( perceive) जाता है ऐसी समझ को ज्ञान कहते हैं   परन्तु जब संवेदन सामग्री को पूर्व अर्जित सूचना/अनुभव के अभाव में तथा सकल अवधान के प्रभाव में सीधे सीधे जाना जाता है तो ऐसे जानने को तत्व से जानना कहते हैं आध्यात्मिक समझ के लिए तत्व से जानने की प्रक्रिया ही काम आती है -अरुण     

मै एक झकोरा – ढूँढ रहा हूँ ........

पीपल के अनगढ पत्ते ने ना खोज कभी की पीपल की मै एक झकोरा – ढूँढ रहा हूँ घना बवंडर गीता में वह लहर कभी ना नाप रही सागर की सीमा रेखाएं स्वर हँसे तार पर वीणा के, वीणा की मौनभरी आहें विस्तीर्ण अखंडित गगन मगर, खंडित परमात्मा गीता में मै एक झकोरा – ढूँढ रहा हूँ घना बवंडर गीता में यह खोज महज शब्दों की है शब्दों का बोझ बड़ा भारी शब्दों ने गाया शब्दों को अर्थों की दुनिया दूर धरी उस मूल अर्थ को कैसे सुन पाओगे, शाब्दिक गीता में मै एक झकोरा – ढूँढ रहा हूँ घना बवंडर गीता में निर्मल लय को ढक देती है कविता के शब्दों की काया दुहराता हूँ हर बार मगर शब्दों से निकल नही पाया उस शुद्ध स्थिति पर खड़े हुए हैं, भवन श्लोक के गीता में मै एक झकोरा – ढूँढ रहा हूँ घना बवंडर गीता में -अरुण

हर चीज उपयोगी

कुदरत ने दी हर चीज किसीके काम आती है अच्छा हो गर चीज पहुँच जाए सही हाँथ - अरुण

प्रेम

हम जानते ही हैं कि यदि परस्पर प्रेम में स्वार्थका खुला/छुपा थोडासा भी अंश जीवित हो तो ऐसे प्रेम को व्यावहारिक प्रेम का दर्जा दिया जाता है परस्पर एवं समाज विशेष के हित (अहित) में माने जाने वाले इस प्रेम को समाज में एक अलग स्थान प्राप्त है, परन्तु यह प्रेम नही है बल्कि   सम्बंधित पक्षों को सापेक्षतः प्रिय (या अप्रिय) जान पड़े ऐसी शुद्ध व्यावहारिकता है आध्यात्म के सन्दर्भ में प्रेम यानी सम्पूर्ण एकत्व ( union or communion) , इसमें प्रेम करने वाला और प्रेमपात्र ऐसे किसीभी भेद का कोई अस्तित्व नही - अरुण      

सकल ध्यान है अस्तित्व

सकल ध्यान है अस्तित्व और खंडित ध्यान है अस्तित्वगत ज्ञान ध्यान का कोई ध्यानक नही परन्तु ज्ञान का ज्ञानक (ज्ञानी) है ध्यान के खंडित होते ही कर्ता और कृत्य का द्वैत फलता है ज्ञान ध्यान के मार्ग में बाधा है परन्तु ध्यान की अवस्था में ज्ञान को कोई रूकावट नही   - अरुण

अचेतन - चेतन अवस्था का न्यूनतम अंश

चेतन अवस्था के न्यूनतम अंश को अचेतन अवस्था कहना उचित होगा अक्सर कहा जाता है कि हमारी अधिकाधिक   अनुभूतियाँ अचेतन में दबी रहती हैं और वहीँ से वह हमारे चेतन आचरण को बड़े दबे पांव से प्रभावित करती रहती है मनुष्य का मन जिन बातों से वास्ता रखना नही चाहता और जो बातें कालांतर से गैरप्रभावी होती हैं अचेतन के रूप में मन में दबी पड़ी रहती हैं - अरुण  

शब्द सन्दर्भ-सापेक्ष होते हैं

शब्दों के मतलब सन्दर्भ बदलते ही बदल जाते हैं. कभी कभी तो शब्द बिलकुल विपरीत संकेत दर्शाते हैं. ‘ जानकारी ’ सांसारिक या लौकिक अर्थ में आदमी को जगाने का काम करती है. परन्तु अध्यात्मिक अवस्था की दृष्टि से जानकारी आदमी को अवधान वंचित रखती है जानकारी की प्रक्रिया में आदमी खो जाता है और फलतः अवधान (परम-जागृति) से हटकर सांसारिक निद्रा का शिकार बन जाता है. -अरुण  

लम्हों के गुबारों में....

लम्हों के गुबारों में सदियों की हवा है सपनों का शहर जिसमें उम्मीद रवां है जिस रोज उठेगा ये तूफाने हकीकत उस रोज दिखेगा कि हर पल ही जवां है   - अरुण  

जिंदगी की नही कोई डगर

जिंदगी साँस से उलझे हुए लम्हों का सफर राह में बनते बिगडते हुए रिश्तों का असर जिसने हर साँस को देखा हो उभरते ढलते वही जाने के जिंदगी की नही कोई डगर -अरुण   

‘व्हैलेंटाइन डे’

आज का दिन प्यार के इजहार का दोस्ती का प्रेम का मन-हार का जो छुपा हो या खुला हो प्यार दिलमें प्यार के उस, जुररते इकरार का -अरुण     

हरेक फूल में सारे जहाँ की सारी खुशी

कहीं शुरू कहीं खतम, ये तर्क बचकाना जहाँ असीम है, कोई हुआ न पैमाना हरेक फूल में सारे जहाँ की सारी खुशी किसी भी फूल का अपना अलग न मुस्काना -अरुण

ये कल और आज का रिश्ता

कल की तारीख याद लाए बिना आज की तारीख याद नही आती नही होगा कोई भी दिन नया फकत होगा ये कल और आज का रिश्ता -अरुण  

जागृति एक परम अवस्था है

अनुभव लेना, जानना और निरखना इन तीन अवस्थाओं से परे है मनुष्य की जागने की अवस्था जो जागा वही मुक्त है अनुभव, ज्ञान और साक्षी निरिक्षण तीनो ही बातों का कोई करने वाला होता है परन्तु जागृति का न तो कोई कर्ता है और न ही किसी व्यक्ति पर यह घटती है   जागृति एक परम अवस्था है जिसके आधीन मनुष्य अस्तित्व से एकजीव हो जाता है -अरुण

अस्तित्व सम्पूर्ण है

व्यवस्था यह शब्द सापेक्ष है मनुष्य के अच्छे स्वास्थ्य के लिए जिस शारीरिक एवं मानसिक व्यवस्था की आवश्यकता होती है, वह व्यवस्था अन्य जिवाणुओं, प्राणियों या वनस्पतियों को शायद प्रतिकूल लगती होगी अस्तित्व (कुल अस्तित्व) परिवर्तित होते हुए भी अपनी एक व्यवस्था बनाए रखता है क्योंकि अस्तित्व सम्पूर्ण है उसे किसी एक ही अंग या अंश की व्यवस्था से सरोकार नही है वह सारे जोड़ घटाव के बावजूद भी सम्पूर्ण है - अरुण

इस भूल का कोई क्या करे?

मस्तिष्क ने मन को बनाया अब मन समझता है कि वह मस्तिष्क को चला रहा है नदी के प्रवाह पर तैरती नौका अगर यह समझे कि नदी में निर्मित प्रवाह उसका ही चलाया हुआ है तो इस भूल का कोई क्या करे? -अरुण

खुली आँखवाले

खुली आंख वालों को जो दिखता है, उसे वे प्रतिकों के माध्यम से सब को दिखलाना   चाहतें हैं परन्तु देख पातें हैं केवल वे जिनकी आँखों से अज्ञान या माया का पडदा हट     चुका हो, बाकी सब केवल प्रतिकों से ही अपनी ‘ दर्शन ’ की   प्यास को बुझाने की कोशिश में रमें रहते हैं -अरुण

अब उनका राज चलता है

हमने हर चाल चली देखकर उनका रव्वैया मेरी हर साँस पे अब उनका राज चलता है -अरुण  

मौत -चलते चलते थम जाना

चलते चलते ही थमा करते हैं सब लोग अचानक हम समझते के चल पड़े हैं किसी और के जानिब -अरुण

किस मुकाम पे ये अहम पैदा हुआ

जो है आज उस से हटकर, कल की चाहत करना अपने आप को घसीटते परेशां होना सदियों से आदमी यही करता रहा इसी को जिंदगी का मकसद कहता रहा अब यही उसकी रोजाना जिंदगी है मौत की जमीं है, फलती जिंदगी है पता नही, किस मुकाम पे ये अहम पैदा हुआ जिद्दोजहद का ये सिलसिला पैदा हुआ शायद, उसी समय से खुदा का खयाल उभरा है अमन के नाम पर अक्सर बवाल उभरा है - अरुण  

राह रोके रोशनी की खुद खड़े हो

अपनी परछाई को हटाने में जुड़े हो ? राह रोके रोशनी की खुद खड़े हो - अरुण

इतिहास के सागर में .......

रिश्तों ने रिश्ते बुने तो     यादे ‘ मै ’ गढते गये   इतिहास के सागर में मोती स्वप्न के बनते गये   -अरुण    

अस्तित्व केवल ‘है’

अस्तित्व केवल ‘ है ’ कैसा, कहाँ और कब है ? ऐसे सवाल अस्तित्व से जुदा हो गया मन ही पूछता है जो भी अस्तित्व से जुड़ा है वह निश्प्रष्ण अवस्था में अस्तित्व ही है और कुछ भी नही - अरुण