प्रेम


हम जानते ही हैं कि यदि परस्पर प्रेम में
स्वार्थका खुला/छुपा थोडासा भी अंश जीवित हो
तो ऐसे प्रेम को व्यावहारिक प्रेम का दर्जा दिया जाता है
परस्पर एवं समाज विशेष के हित (अहित) में
माने जाने वाले इस प्रेम को समाज में
एक अलग स्थान प्राप्त है,
परन्तु यह प्रेम नही है बल्कि  
सम्बंधित पक्षों को सापेक्षतः प्रिय (या अप्रिय)
जान पड़े ऐसी शुद्ध व्यावहारिकता है
आध्यात्म के सन्दर्भ में
प्रेम यानी सम्पूर्ण एकत्व (union or communion),
इसमें प्रेम करने वाला और प्रेमपात्र
ऐसे किसीभी भेद का कोई अस्तित्व नही
- अरुण    

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