व्यक्तिगत और सृष्टिगत अस्तित्व


पेड, पौधे और जंगल
की तरह ढलकर
सृष्टि में पुनः लीन हो जाना
अब संभव नही है
अब तो केवल
उस सीमा रेखा पर
बने रहना संभव हो पाए शायद
जहाँ से स्वयं के
व्यक्तिगत और सृष्टिगत अस्तित्व के
भेद को स्पष्टतः निहार संकू
-अरुण

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