मन शरीर में उपजा एक भ्रम-पदार्थ


मन शरीर में उपजा एक भ्रम-पदार्थ है
जिसके भीतर यतार्थ से संपर्क घटते ही
विचार और फलतः विचारक
अवतरित होता है,
विचारक या अहम के उपजते ही  
वासना, प्रयत्न, संकल्प और
कुछ बनने का ख्याल पैदा होता है
ऐसे स्वप्निल ख्याल समय की
अवधारणा की मिथ्या कल्पना को
संचालित कर देते हैं
फिर पीछे पीछे भय, पलायन, संभ्रम, दुःख और
फिर किसी बात की खोज का क्रम चल पडता है
मन की इस गत्यात्मकता के भीतर
कर्ता यानी सेल्फ या अहम का भाव और
ध्रिड होता रहता है
-अरुण

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