भारत की राजनीति ‘भय’ की शिकार
दोनों –सरकारी और विपक्षी
दल –
एक अनोखे भय के शिकार
हो चुके हैं.
केवल चर्चाओं और बहसों
से जनता का समाधान करने की प्रवृत्ति
ने जन-मानस में चिंता
पैदा की है.
एक्शन-शून्य सरकार
और
अपनी भूमिका को अस्पष्ट
रखकर
मौके का फायदा उठाने
के लिए तत्पर बैठा विपक्ष – दोनों ही
असंतोष का वातावरण
बनाने में बराबरी के जिम्मेदार है.
धार्मिक और सांस्कृतिक
भावनाओं का धन बनाकर
प्रति सत्ताएँ सर ऊपर
उठा रही हैं.
कहीं से भी इन शरारती
तत्वों का
कृति-शील विरोध नही
हो रहा.
सब को बस एक ही भय
है –
कहीं हाँथ से सत्ता
छूट न जाए या
सत्ता का मौका चूक
न जाए.
चुनावी सफलता को नजरअंदाज
कर
देश-हित में अपनी बात
खुले तौर पर सामने रखने
और उसपर एक्चुअल एक्शन
लेने का साहस
किसी में भी नही है.
पता नही ऐसा साहस राजनीतिज्ञ
कर भी पाएँगे या नही ?
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