धर्म है व्यक्तिगत, धर्म की राजनीति/कर्मकांड है सामुहिक



संसारिकता में उलझा व्यक्तिगत चित्त
अहंकार, स्पर्धा, ईर्षा, द्वेष, हिंसा-भाव, भय, चिंता आदि
भावनिक उद्वेगों से गुजरे तो कुछ अस्वाभाविक नही.
परन्तु ऊपर कही गई बातें जब व्यक्तिगत न रहकर
एक मानवी संगठन के हवाले हो जाती या कर दी जाती हैं
तब एक उग्र रूप धारण करती दिखती हैं.
भारत में, धार्मिक संगठनों द्वारा जारी फतवे,
धर्म-संसदों का राजनैतिक हस्तक्षेप,
खाप पंचायतों का व्यक्तिगत समस्याओं में
अनुचित दबाव जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ
लोकतंत्र के लिए
एक बड़ा सरदर्द बनने जा रहीं हैं.
जिन्हें ये बातें ठीक नही लगती ऐसे विवेकशील लोग
अपना मत या नाराजगी
खुलेतौर पर व्यक्त नही कर पा रहे हैं
उनकी इस मजबूरी का उग्रवादी समूह
पूरा फायदा उठाते दिखते हैं
-अरुण  

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