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Showing posts from October, 2010

मानुष ना हम जन्म से......

अनुवांशिकता और जन्मोपरांत का लालन पोषण दोनों के मिलन से बना रसायन निर्धारित करता है कि पृथ्वी पर आए प्राणी को मनुष्य कहा जाए या लोमड़ी या कुछ और मनुष्य के पिल्ले को जंगल में उठाकर ले गई लोमड़ी के यहाँ पला बढ़ा वह पिल्ला लोमड़ी की तरह ही आचरण करने लगा- यह सत्य कथा प्रायः सब को ही पता है निष्कर्ष यह कि हम जन्म से मनुष्य नही है जैसा और जहाँ लालन पोषण हुआ वैसे ही हम ढले ----- मानुष ना हम जन्म से मानुष एक विकास जिस प्राणी का पालना उसका मुख में ग्रास ............................................................... अरुण

जो जैसा है वैसा ही देखना

राह चलता यात्री जो दृश्य जैसा है वैसा ही देखे तो उसे नदी नदी जैसी, पर्वत पर्वत जैसा, चन्द्र- चंद्र की तरह और सूर्य में- सूर्य ही दिखाई देगा परन्तु यदि दृश्य पर पूर्वानुभवों, पूर्व-कल्पनाओं और पूर्व-धारणाओं का साया चढाकर यात्रा शुरू हो तो शायद नदी लुभावनी परन्तु पर्वत डरावना लगे चंद्र में प्रेमी की याद तो सूर्य में आग का भय छुपा दिख जाए सारी सीधी सरल यात्रा भावनाओं और प्रतिक्रियाओं से बोझिल बन जाए ................................................................ अरुण

सत्य केवल संचार

न सत्य कुछ जानता है न कुछ पहचानता है न तो वह ज्ञानी है और न अज्ञानी उसका कोई नाम नही कोई धाम नही हाँ , उसे जानने के लिए असत्य की कोशिशे जारी हैं सदियों से इच्छा, विचार, प्रयोजन नामक असत्य आदमी का मन बन कर सत्य को जानना चाह रहा है जब तक जानना है प्रयास व्यर्थ हैं क्योंकि सत्य जानना नही जीना है सत्य को जीनेवाला ही सत्य का संचार है संवाद नही संवाद की जरूरत असत्य को है सत्य केवल संचार है .................................. अरुण

परन्तु मै अनुभव कर रहा हूँ कि -

मेरा जीवन अनुभव कर रहा है कि - जो मेरी कुदरत को छूकर चला जाता है वह है मेरा इतिहास जो कभी भी नही आता, वह है भविष्य और जो है, वह है मेरा स्वयं बिना किसी इतिहास बिना किसी भविष्य परन्तु मै अनुभव कर रहा हूँ कि – मेरी कुदरत को छूने वाला इतिहास लद जाता ही मुझपर मेरी याद बनकर मेरी भवि- कल्पनाएँ आगे कि तरफ घसींट रही हैं मेरा वर्तमान .......................................... अरुण

असत्य के साथ साथ

सत्य, असत्य के नीचे है असत्य के भीतर है असत्य के ऊपर है हर स्थिति में है असत्य के साथ साथ ............................. अरुण

दिमाग में ही सारा अस्तित्व ...

अस्तित्व संवेदित हुआ ह्रदय में चेता ह्रदय ने अभिव्यक्त होने दिमाग का इस्तेमाल किया फिर दिमाग ही दिमाग से बोलने लगा ह्रदय को भुलाकर दिमाग में ही सारा अस्तित्व सिकुडकर बैठ गया .................................. अरुण

आओ, कोई हमें ठगों

झूठे विचारों, भावनाओं और चमत्कारों का प्रचार कर लोगों को ठगनेवालों पर क्रोध आना स्वाभाविक है परन्तु यह क्रोध और भी बढ़ जाता है यह देखकर कि लाखों की तादाद में लोग खड़े हैं लाईन लगाकर और कह रहे हैं आओ, कोई हमें ठगों ................................... अरुण

खोज अधूरी

सदियों से आदमी हम क्या हैं, क्यों हैं, कैसे हैं कितने और कहाँ से कहाँ तक है इन्ही प्रश्नों में उलझा हुआ है परन्तु ‘ हम हैं ’ इस मूल सच्चाई के पीछे अपने ‘ है-पन ’ या ‘ होने ’ ( being ) को वह भूल रहा है इस मूल सच्चाई को ध्यान से हटा कर किया गया कोई भी खोज-चिंतन (वैज्ञानिक हो या आध्यात्मिक) अधूरा या अपर्याप्त है ............................................. अरुण

‘वादी’ होना अस्वाभाविक है

किसी भी भावना या विचार विशेष की अति या चरम पकड़ बैठना सभी ‘ वादियों ’ ( ism) की दुराग्रही सोच है जो स्वाभाविक है उसे ही अस्वाभाविक परिमाण में स्वीकारना मूर्खता है अपनी माँ से प्रेम किसे नही होता ? अपने देश के प्रति आत्मीयता किसे नही होती? अपने धर्म से प्रायः सभी को लगाव होता है शोषित के प्रति सभी के मन में स्वाभाविक दया होती ही है सभी अपनी जात या समुदाय की तरफ थोड़े बहुत झुके होते ही हैं अन्यायपूर्ण असमानता या भेदभाव देखकर सभी को दर्द होता है किसी की होनेवाली हिंसा से सभी को चिड होती है परन्तु जो इन सहज स्वाभाविक भाव-वृतियों का इस्तेमाल संघर्ष हेतु संगठित होने में करते हैं वे सब मातृप्रेमवादी, मातृभूमिवादी, राष्ट्रवादी, भाषावादी, प्रांतवादी, धर्म-विशेषवादी, समाजवादी साम्यवादी, जाती-विशेषवादी अहिंसावादी..... ऐसी भिन्न भिन्न संज्ञाओं से जाने जाते हैं वे अपने सम-विचारियों में भले ही सराहे जाते हों, अतिरेकी ( Extremist) प्रवृति के हैं ऐसे लोग ही कट्टरपंथी, आतंकवादी बनने जा रहे हैं ............................................

मस्तिष्क और कंप्यूटर

कंप्यूटर और मानव- मस्तिष्क, इन दोनों के बीच तुलना करना गलत होगा मस्तिष्क का, बाहर की ओर फैला हुआ हिस्सा ही कंप्यूटर या संगणक है या यूँ कहें कि संगणक मस्तिष्क का बाहरी शरीर है जिसके माध्यम से मस्तिष्क स्वयं को संचालित करता है दशहरे की शुभकामनाएँ ......................................... अरुण

दो तरह के आदमी

मन से जीने वाले आदमी की आँखें जागती हों या सोयी हुई दोनों ही स्थिति में वह आदमी मन के भीतर है जागा हुआ आदमी नींद में हो या नींद के बाहर दोनों ही अवस्था में वह मन के बाहर है .................................. अरुण

हम मन बनकर जी रहे हैं

मान लिया जाए कि कुँए का पानी बिलकुल ही निस्वाद हो न मीठा, न कड़वा, न तीखा,,न कसैला ... कोई भी स्वाद नही स्वाद जिस गिलास से पीया जाए, उस गिलास में ही लगा हो तो पीने वाले को कुए का पानी उस स्वाद का महसूस होगा जिस स्वाद का उसका गिलास होगा जीवन बिलकुल निस्वाद है न सुख की मिठास है और न न दुःख की खटास मन की अवस्था के अनुसार कभी खुशी महसूस होती है तो कभी गम हम जीवन से नही जी रहे हम मन बनकर जी रहे है ........................................ अरुण

व्यक्तिनिष्ठता

अहंकार का भाव ही भीतर की सारी व्यक्तिनिष्ठता चला रहा है इसी भावमयता में दूसरों से अपनी तुलना, असुरक्षा, डर, चिंता, लोभ, गुस्सा, इर्षा एवं महत्त्व-आकांक्षा का दौर जारी है जिन विचारों, विश्वासों, पक्षो, व्यक्तियों और भोगोलिक इकाई से नाता जोड़ लिया हो उसके ही हित की बात सोचने की वृत्ति बनी रहती है ऐसी ही भावनाओं के आधीन होकर रहना और आचरण जगाना व्यक्तिनिष्ठता का काम है वस्तुनिष्ठ वैज्ञानिक भी अपने निजी जीवन में व्यक्तिनिष्ठता के ही आधीन रहता है उसे भी अपनी स्तुति अच्छी लगती है (भले ही ऊपर ऊपर, उसका आचरण अलग दिख रहा हो) उसके मन में भी प्रतिस्पर्धी-वैज्ञानिक के प्रति ममत्व नही रहता सम्पूर्णनिष्ठता में, व्यक्ति और वस्तु दोनों के परे होने पर, न अहंकार है और न दूजा भाव यह अनन्यभाव का जागरण है (ऊपर जो लिखा है उपदेश नही है, एक तथ्य-निरूपण है) .......................................... अरुण

छोटी छोटी बातें भी .......

आकाश गंगा में पसरे तारों में से कोई एक विशिष्ट तारा किसी को दिखाना हो तो सामने के पेड की ऊँची टहनी पे लटके किसी एक पत्ते को निशाना बना कर उसके छोर से वह तारा देखनेवाले की नजर में लाया जाता है तारा उस पत्ते से हजारों प्रकाश-वर्ष दूर है फिर भी वह पत्ता तारे को देखने का साधन बन जाता है ----- जिनका प्रत्यक्ष कोई भी वास्ता नही, ऐसी छोटी छोटी बातें भी जीवन – दृष्टि प्रदान कर देती हैं ....................................................... अरुण

सत्य पर शब्द चढ़ते नही

हवा को रंगने की कोशिश में रंग दीवार पर चढ रहा है हवा तो रंगीन होती नही दीवार को ही- हवा समझा जा रहा है सत्य पर शब्द चढ़ते नही पर शब्दों को ही गरिमा प्राप्त हो गई है सत्य की .................................. अरुण

टूटा संवाद, टूटा आचरण

जिस तरह कहनेवाला अपनी बात अपनी समझ से कहे और सुननेवाला अपनी भिन्न समझ से सुने तो बीच का संवाद टूट जाता है ठीक इसी तरह कहनेवाले का विवेक कुछ कहे और भावना कुछ और तो उसके आचरण में दरार आ जाती है राजनीति में ऐसे आचरण को बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त है ...................................................... अरुण

बहुत ही ध्यान से, ध्यान पर ठहर कर पढ़ें

वर्तमान ही वर्तमान अभी, यहाँ, यहीं उसपर खड़ा है भूत का ‘ कमरा ’ उसपर खड़ी है स्वप्न की ‘ कुटिया ’ अभी यहीं यहीं पर ध्यान बाधित है विचरने के ‘ वायरस ’ से और इसीलिए ध्यान विचर रहा है ‘ कमरे ’ के तहखाने में ध्यान विचर रहा है ‘ कुटिया ’ के आकाश में और भूल जाता है “ अभी, यहाँ, यहीं ” वाली अपनी मूल अवस्था ऐसे भूलने को स्मृति कहतें है ऐसे भूलने को ही स्वप्न कहतें है ध्यान के विचरन को ही विचार कहतें है और जब ध्यान न रहे वर्तमान में तो उसे ही व्यापक अर्थ में अज्ञान कहते है संसार में विचरने वाले हम सभी अज्ञानी है सार में ठहरने वाला ही ध्यानी है और ध्यानी ही व्यापक अर्थ में ज्ञानी है ....................................................... अरुण

बहुत ही ध्यान से, ध्यान पर ठहर कर पढ़ें

वर्तमान ही वर्तमान अभी, यहाँ, यहीं उसपर खड़ा है भूत का ‘ कमरा ’ उसपर खड़ी है स्वप्न की ‘ कुटिया ’ अभी यहीं यहीं पर ध्यान बाधित है विचरने के ‘ वायरस ’ से और इसीलिए ध्यान विचर रहा है ‘ कमरे ’ के तहखाने में ध्यान विचर रहा है ‘ कुटिया ’ के आकाश में और भूल जाता है “ अभी, यहाँ, यहीं ” वाली अपनी मूल अवस्था ऐसे भूलने को स्मृति कहतें है ऐसे भूलने को ही स्वप्न कहतें है ध्यान के विचरन को ही विचार कहतें है और जब ध्यान न रहे वर्तमान में तो उसे ही व्यापक अर्थ में अज्ञान कहते है संसार में विचरने वाले हम सभी अज्ञानी है सार में ठहरने वाला ही ध्यानी है और ध्यानी ही व्यापक अर्थ में ज्ञानी है ....................................................... अरुण

लहरें समन्दर की, लहरें मन की

धीमी-धीमी मृदुल हवा से गतिमान समन्दर की लहरें हों या बवंडर से आघातित ऊँची ऊँची उछलती लहरें समन्दर की लहरों में हमेशा ही एक लय बद्धता है उनमें कोई आतंरिक संघर्ष नही सभी लहरें एक ही दिशा में एक ही ताल, रिदम में चलती, उछलती हुई परन्तु मन की लहरें आपस में ही भिड़ती, एक दूसरे से जुदा होते हुए अलग अलग दिशा में भागती तनाव रचती, संघर्ष उभारती मन की लहरें समन्दर की लहरों के पीछे एक ही निष्काम-शक्ति है मन की लहरों के पीछे परस्पर विरोधी इच्छा-प्रेरणाएँ ............................................................. अरुण

लहरें समन्दर की, लहरें मन की

धीमी-धीमी मृदुल हवा से गतिमान समन्दर की लहरें हों या बवंडर से आघातित ऊँची ऊँची उछलती लहरें समन्दर की लहरों में हमेशा ही एक लय बद्धता है उनमें कोई आतंरिक संघर्ष नही सभी लहरें एक ही दिशा में एक ही ताल, रिदम में चलती, उछलती हुई परन्तु मन की लहरें आपस में ही भिड़ती, एक दूसरे से जुदा होते हुए अलग अलग दिशा में भागती तनाव रचती, संघर्ष उभारती मन की लहरें समन्दर की लहरों के पीछे एक ही निष्काम-शक्ति है मन की लहरों के पीछे परस्पर विरोधी इच्छा-प्रेरणाएँ ............................................................. अरुण

तन-मन–ह्रदय की गहराई से देखना

पानी में छड़ी डालो तो तिरछी हुई लगती है तिरछी होती नही, लगती है यह दृष्टि-भ्रम है, इस बात को हम पूरी गहराई से देख लेते हैं हम इस भ्रम को पकडते तो हैं पर भ्रम हमें पकड़ नही पाता यानी डस नही पाता ठीक इसके विपरीत संसार माया है इस बात का ज्ञान होते हुए भी माया हमें डस लेती है हमारा चित्त और आचरण बदल देती है भ्रम या माया को विवेक या बुद्धि से देखना और तन-मन और ह्रदय की गहराई से देखना दोनों भिन्न क्रियाएं हैं विवेक आत्म-संयम का मार्ग है आत्म-बोध का नही .............................................. अरुण

घड़े में स्वयं .......

घड़े में स्वयं भर गया हूँ पूरा का पूरा और जानना चाहता हूँ कैसा होता है घड़े का रीतापन शायद कभी भी न जान पाऊं तबतक जबतक स्वयं के होने का भ्रम टूटता नही पूरा का पूरा .......................................अरुण

घड़े में स्वयं भर गया हूँ

पूरा का पूरा और जानना चाहता हूँ कैसा होता है घड़े का रीतापन शायद कभी भी न जान पाऊं तबतक जबतक स्वयं के होने का भ्रम टूटता नही पूरा का पूरा .......................................अरुण

लफ्जों की कश्तियों से.........

कहना उन्हें फिजूल सुनना जिन्हें सजा है वैसा भी कह के देखा., जैसा उन्हें रजा है लफ्जों की कश्तियों से बातें पहुँच न पाती इक साथ डूबने का कुछ और ही मजा है ............................................. अरुण

क्रियामयता ही समाधी

क्रिया बिना वाक्य अधूरा है बाद में कर्ता को जानने में रूचि हो जाती है किस पर हो रही है यह क्रिया यह भी दर्शाया जाता है आध्यात्मानुभूति में क्रिया ही क्रिया है न कर्ता है और न ही कर्म जिसे भ्रमवश चित्त कर्ता समझता है वह भी क्रिया ही है और चित्त जिसे कर्म रूप में देखता है वह भी एक क्रिया ही है क्रिया द्वारा क्रिया को क्रिया के रूप में देखना ही समाधी है .................................................. अरुण

क्रियामयता ही समाधी

क्रिया बिना वाक्य अधूरा है बाद में कर्ता को जानने में रूचि हो जाती है किस पर हो रही है यह क्रिया यह भी दर्शाया जाता है आध्यात्मानुभूति में क्रिया ही क्रिया है न कर्ता है और न ही कर्म जिसे भ्रमवश चित्त कर्ता समझता है वह भी क्रिया ही है और चित्त जिसे कर्म रूप में देखता है वह भी एक क्रिया ही है क्रिया द्वारा क्रिया को क्रिया के रूप में देखना ही समाधी है .................................................. अरुण

ध्यान का जागरण

किसी भी चीज, बात, प्रसंग या तथ्य को जानना मस्तिष्क की ज्ञान- प्रवृत्ति है परन्तु मस्तिष्क क्यों जानना चाह रहा है और ‘ जानने की क्रिया ’ कैसे चल रही है इसे समझते हुए जानना ध्यान का जागरण है ............................................ अरुण

भगवान राम से ...

तेरे नगर में कोई न झगडा फसाद था तेरे नगर पे बहसें पसरा बवाल है बटने का सिलसिला तो कबसे है चल पड़ा अब किसको क्या मिले ये मुकद्दर की बात है ...................................... अरुण