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Showing posts from July, 2011

तात्पर्य गीता अध्याय ८

अणु में वा परमाणु में चलनशील अविनाश / ब्रह्म-तत्व अविरत रहे, बन उत्पत्ति नाश // ............... ब्रह्म-तत्व स्मरता हुआ, योगी हो परमात्म / जन्म-मरण के बोझ से, बाहर होता आत्म // ................................................ अरुण

तात्पर्य गीता अध्याय ७

जल में घट डूबा पड़ा, घट जल से भर जाय / ‘ अंदर-बाहर ’ इक समझ, चित जिससे भरमाय // ............... देह-भावना डालती, चित में इच्छा-बीज / काम क्रोध जस द्वैत बिन, नही दिखती कुई चीज // ................................................ अरुण

तात्पर्य गीता अध्याय ६

नाम नाम के भेद से चीज चीज में भेद / जब अनाम चित जागता सोये भेदाभेद // ............... कर्म ज्ञान तप भजन के मारग हैं भिन भिन / सभी पहुंचते एक को होत समाधीलीन // ................................................ अरुण

तात्पर्य गीता अध्याय ५

देह-मग्न के हाँथ से जो भी घटता काज / काज भिन्न गुण-धर्म जब आत्म-मग्न के हाँथ // ............... चहुँ फैले आकाश में, अंदर बाहर धूप / अहंकार आकाश को देत रहे इक रूप // ................................................ अरुण

तात्पर्य गीता अध्याय ४

मानुष तो इक यन्त्र बस, यांत्रिक कंही कुई और / जिसकी हो यह भावना, वह ईश्वर के ठौर // ............... जनम मरण इक कल्पना, लहर उठे गिर जाय / भेद तोडता चित्त को, टूटा सागर हाय // ................................................ अरुण

तात्पर्य गीता अध्याय ३

धूसर चित धर कर्म को, ज्ञानी तेज प्रकाश / कर्म ज्ञान दुई छोर हैं बीच ध्यान आकाश // ............... अंधा-, पत्तल सामने, कुत्ता खिचड़ी चाट / काम क्रोध हो लापता, अखियों के खुल जात // ................................................ अरुण

तात्पर्य गीता अध्याय २

कृष्ण रूप में सत्य ही, भ्रम को देत उघाड़ / देह मृत्यु मृत्यु नही, आत्मा सदा अजाद // ............... आत्म चित्त से कर्म हो कर्म होत बस कर्म / निर्मन जो भी कर रहा हर हालत में धर्म // ................................................ अरुण

तात्पर्य गीता अध्याय १

मोह्भारी करुणा धरे अर्जुन हुआ उदास / बड़ी बड़ी बातें करे , करे सत्य उपहास // ............... स्वार्थमयी जो युद्ध है युद्ध महज लहुपात / ज्ञान ध्यान धर जो घटे युद्ध पाप के साथ // ................................................ अरुण

भूत और भविष्य की निर्बोझ अनुभूति

हर जीवंत साँस के साथ साथ, मृत-भूत और काल्पनिक भविष्य का बोझ ढोते आदमी के चित्तमें, केवल भूत और कल्पना का स्मरण है, जीवंत साँस के प्रति ऐसा आदमी गाफिल है ............ सांस के जीवंत अस्तित्व के प्रति जो जागा हुआ है, ऐसा आदमी जीवंत है दोनों ही जगह, साँस पर और अपने भूत और भविष्य पर भी फर्क इतना ही कि अब भूत और भविष्य उसके लिए एक निर्बोझ अनुभूति के आलावा कुछ नही हैं ........................................... अरुण

सर्व धर्म समवेशकता यानी सर्व धर्म सम-भाव

आग को आग से मिटाना पानी को पानी से सुखाना जितना नामुमकिन है उतना ही नामुमकिन है किसी धर्म, जाति, देश या प्रान्त-भाव में बंट कर समग्र हो पाना ........................... जब देश के मंदिरों में कुरान और मस्जिदों में गीता के आयोजन सहजता से (राजनीति से नही) होंगे तभी इस देश को ‘ सर्व-धर्म समभाव ’ वाला देश कहना उचित होगा ............................. अरुण

बात सही और सही अंदाज में भी

स्वास्थ्य से जुड़े आचरण और दैनिक आदतों को स्वास्थ्य के अनुकूल ढालने के लिए मरीजों, संभावित मरीजों और उनसे सम्बंधित लोगों को जिस प्रकार की स्वास्थ्य-शिक्षा दी जाती है उसके बारे में एक बात ठीक से ध्यान में रहे , वह यह कि “ बात कहनी है सही, सही अंदाज में मगर जिससे सुननेवाले की बदल जाए नजर ” ............................... सही बात को ( जानकारी या तथ्यों को) जब बतलाया या सिखाया जाए तब संवाद भी सही या प्रभावकारी होना चाहिए इतना प्रभावी की बात या संवाद को सुनते ही सुननेवाले की सोच में, उसके दृष्टिकोण में सकारात्मक बदलाव हो जाए चूँकि आचरण का बदलाव- यह फल है दृष्टिकोण और मानसिक सोच के बदलाव का, संवाद-विषय को प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करने की कला का महत्व अधिक है ............ अनुभव यह है की संवाद- कार्यकर्ताओं को इस कला के बारे में कम और संवाद विषय पर ही अधिक जोर देकर प्रशिक्षण दिया जाता है ....................................................................................... अरुण

एक बोध-सूचक जोक

कल ही एक बोध-सूचक जोक सुना .... मरीज ने शिकायत की – डाक्टर साहब !, सारे बदन में दर्द है बदन में जहाँ कहीं उंगली दबाता हूँ बदन के उस हिस्से में दर्द महसूस होता है मरीज पर गौर करते डाक्टर मुस्कुराये और बोले – जनाब. दर्द आपकी उंगली में है, सारे बदन में नही .......................... जीवन की घनी पसरी वास्तविकता अपने आप में सुख दुःख के परे है परन्तु अहंकार का स्पर्श होते ही उस वास्तविकता से सुखने-दुखने का अनुभव होने लगता है .............. १) सारा सुख-दुःख अहंकार से उठता है वास्तविकता से नही २) अहंकार की प्रतिक्रिया को ही अनुभव कहते हैं, वास्तविकताएँ अनुभव से परे हैं ...........................................अरुण

जिंदगी बंद डिब्बे में पड़ी है

जिंदगी बंद डिब्बे में पड़ी है मेरी कामचलाऊ सोच ने डिब्बे की हर परत गढ़ी है ......................... पानी ही मछली का जीवन है पानी ही हैं उसके प्राण ठीक इसी तरह संसार में जीता मै संसार बिना जी नही पाता अस्तित्व जिसका मै अभिन्न हिस्सा हूँ उससे मै, चेतना के तल पर जुड ही नही पाता ------------------ मेरी चेतना सांसारिक प्रपंचों एवं प्रतीकों में सिमट कर रह गयी है इस प्रापंचिक दीवाल के बाहर भी एक विशाल अपरिमित संसार या युनिव्हर्स है, इसका मुझे जीवंत अवधान हो ही नही पाता ...................................... अरुण

पक्षपात का दोष

धार्मिक संघर्ष के माहोल में जहाँ एक दूसरे के प्रति वैमनस्य, अविश्वास, कटुता असुरक्षा जैसी भावनाएँ सक्रीय हैं वहाँ परस्पर हिंसा, दुष्प्रचार, बदला, दहशत की कारवाइयों होना भी लाजमी है जो इस संघर्ष के बीच अपने को किसी एक पक्ष से जोड़कर परिस्थिति पर प्रतिक्रिया करतें हैं, उनकी यह प्रतिक्रिया पक्षपाती हो तो कोई आश्चर्य नहीं अपनी एक तरफा सोच से पीड़ित ये लोग, अप्रत्यक्ष रूप में संघर्ष की आग को भडकाने और उस आग में और भी मासूम लोगों की जान जाने की संभावना को बल देते हैं ....................................................... अरुण

मस्तिष्क का रासायनिक संतुलन

अब जब कि ये बातें साफ हो गईं हैं कि मस्तिष्क के सुचारु रूप से काम करने के लिए जो बातें जिम्मेदार मानी जाती हैं उनमें भीतरी रासायनिक संतुलन की भी गणना होती है ऐसा संतुलन बिघड जाने की स्थिति में भी मस्तिष्क के सामान्य क्रिया कलापों में दोष पैदा हो सकता है फलतः मनुष्य का सामाजिक समायोजन और कौशल्य भी विपरीत ढंग से प्रभावित होता है ............... इन सब बातों का जिक्र केवल यह सुझाने के लिए है कि हमारे द्वारा यह मान लेना कि हमारे बुद्धिमतापूर्ण आचरण का सारा श्रेय हमें ही है हमारी गहरी भूल है ....................................... अरुण

बिना किसी अंतर-आन्दोलन के

आदमी की स्मृति एक फ़िल्म की रील की तरह है जो गतिशील है और जिसपर आदमी का ध्यान फोकसस्ड रहने से स्क्रीन पर दिखती एक फ़िल्म की तरह, चित्तपर स्मृति-काल सजीव हो उठता है ध्यान अगर चित्त के सम्पूर्ण क्रिया कलाप पर पसर जाए तो आदमी सारी स्मृति- फ़िल्म को एक प्रोजेक्टर की हैसियत से देख सकेगा एक दर्शक की भूमिका में नही फ़िल्म कामेडी हो या ट्रेजेडी वह उसे एक त्रयस्थ की तरह देखेगा बिना किसी अंतर-आन्दोलन के .............................................. अरुण

यही तो मंजिल है

जहाँ खड़ा हूँ, कदम एक भी गलत होगा ये जमीं जिसपे खड़ा हूँ, यही तो मंजिल है ................................... यहाँ अभी इसी जगह नजर से बंधा माया का आवरण हटे तो सच्चाई दिख पड़ेगी सच्चाई के लिए एक कदम भी चलने की आवश्यकता नही, न आवश्यकता है किसी भी दिशा या मार्ग की

जो है , खुद को देखना चाहे

क्रोध ही क्रोध को मिटाना चाहे मोह ही मोह से निपटना चाहे ऐसी नाकाम कोशिशों के परे जो है, खुद को देखना चाहे .............................................. अरुण

जीवन –अस्तित्वमान या मायावी

प्राण शरीर में संचार करते हैं और शरीर चेतना में, प्राण के अभाव में शरीर चेतना-शून्य है परन्तु चेतना न भी हो या आदमी बेहोश हो तबभी प्राणों को चलते पाया जाता है .................. जिसकी सजगता, भान या अवधान में प्राण, शरीर और चेतना तीनों ही उपस्थित होतें हैं उसका जीवन अस्तित्वमान है अन्यथा जीवन है केवल काल्पनिक या मायावी ............................... अरुण

अस्तित्व कल्पना से अछूता है

अस्तित्व है एक का एक टुकड़ा टुकड़ा, व्यक्ति, व्यक्ति, इस तरह का भिन्नत्व है ही नही चित्त ने चेतना को जाने बिना ही चेतना का उपयोग कल्पना रचने में किया इस कल्पना के सहारे ही कल्पना करने वाले की कल्पना की और फिर यह कल्पित कल्पना कल्पनाएँ करने लगीं अस्तित्व कल्पना की उड़ानों से, उछल कूद और दौड से बिलकुल अछूता है ठीक उसी तरह जिस तरह आजतक आकाश ने धरती को कभी छुवा ही नही ......................................... अरुण

सत्य का पुनर्जीवन

क्रोध ही क्रोध को मिटाना चाहे मोह ही मोह से निपटना चाहे ऐसी नाकाम कोशिशों के परे जो भी है, खुद में लौटना चाहे .............................................. अरुण

स्पर्श मायावी, स्पर्श यथार्थ

सामने उड़ रहा है पानी का एक ऊँचा सा चादरनुमा फौवारा जिसपर प्रक्षेपित है एक दृश्य विशाल सुलगती-दहकती आग का देखनेवाले के अनुभव में उतर रही है उस आग की त्रासदी देखने वाला त्रस्त है, विवंचित है भयभीत है उस आग के मायावी स्पर्श से वह भूल बैठा है फौवारे के शीतल जल कणों का स्पर्श .................................................. अरुण

स्पर्श मायावी, स्पर्श यथार्थ

सामने उड़ रहा है पानी का एक ऊँचा सा चादरनुमा फौवारा जिसपर प्रक्षेपित है एक दृश्य विशाल सुलगती-दहकती आग का देखनेवाले के अनुभव में उतर रही है उस आग की त्रासदी देखने वाला त्रस्त है, विवंचित है भयभीत है उस आग के मायावी स्पर्श से वह भूल बैठा है फौवारे के शीतल जल कणों का स्पर्श .................................................. अरुण

मन का दर्पण

आईने के सामने जो भी आ जाए आईने में प्रतिबिंबित होता है और जैसे ही सामने से हट जाए उसका प्रतिबम्ब भी आईने से हट जाता है .......... परन्तु मन-दर्पण के सामने आनेवाली हर वस्तु या घटना का प्रतिबिम्ब दर्पण में ही ठहर जाता है फिर इन ठहरी प्रतिमाओं के माध्यम से ही यह मन-दर्पण सामने आनेवाली हर वस्तु या घटना को पकडना जारी रखता है, ये पकड़ी हुई या ठहरी प्रतिमाएं आपस में लेन-देन या आपसी क्रियाएँ - प्रतिक्रियायें करती रहती हैं इस सजीव क्रिया-प्रतिक्रिया की भीड़ में दर्पण खुद का स्वतन्त्र अस्तित्व भुला बैठता है इस आईने को अपने प्रतिमा-विरहित स्वरूप का फिर से स्मरण हो जाए .......यही चिंतन सारे अध्यात्मिक प्रयोजन से जुड़ा हुआ है ........................................... अरुण

परमाणु और ज्ञानाणु

जिस तरह भौतिक पदार्थ के सूक्ष्मतम कण यानी परमाणु की विज्ञान ने खोज की उसी तरह मन के सूक्ष्मतम कण यानी चेत या की खोज सघन ध्यान द्वारा होती है विज्ञान की बाहरी खोज में वैज्ञानिकों के परस्पर सहयोग की जरूरत है परन्तु ज्ञानाणु की भीतरी खोज पूर्णतः निजी एवं व्यक्तिगत है विज्ञान के निष्कर्षों को साधनों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जा सकता है परन्तु ध्यान का न तो कोई निष्कर्ष है और न ही अभिव्यक्ति ................................................ अरुण

तजुर्बे - रूहानी और दिमागी

कुदरत की जाँ में घोलना सांसो की हरारत और पढ़ के जान लेना कुदरत की हकीकत - ये हैं दो अलग अलग तजुर्बे - पहला रूहानी है तो दूसरा दिमागी ................................................ अरुण