बिना किसी अंतर-आन्दोलन के
आदमी की स्मृति एक
फ़िल्म की रील की तरह है
जो गतिशील है और जिसपर आदमी का
ध्यान फोकसस्ड रहने से
स्क्रीन पर दिखती एक फ़िल्म की तरह,
चित्तपर स्मृति-काल सजीव हो उठता है
ध्यान अगर चित्त के सम्पूर्ण क्रिया कलाप पर
पसर जाए तो
आदमी सारी स्मृति- फ़िल्म को एक प्रोजेक्टर की
हैसियत से देख सकेगा
एक दर्शक की भूमिका में नही
फ़िल्म कामेडी हो या ट्रेजेडी वह
उसे एक त्रयस्थ की तरह देखेगा
बिना किसी अंतर-आन्दोलन के
.............................................. अरुण
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