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Showing posts from November, 2012

मनाधीन बनाम स्वाधीन

मनाधीन आदमी मंदिर में बैठे बैठे बाजार में टहल रहा है, घर में खाना खाते समय भी उसका चित्त कहीं दूसरी जगह किसीसे वाद-विवाद में उलझा है   स्वाधीन वह है जो जहाँ है और जो कुछ कर रहा है उसे वह पूरे मन से कर रहा है उसका चित्त उसकी वास्तविक स्थिति और कृति में पूरी तरह उपस्थित है -अरुण  

निजता और संस्कार

चल पड़ा था निजता लेकर ढल गया हूँ संस्कारों से संस्कारों में प्राण अटककर निजता सारी भूल चुके हैं -अरुण

यांत्रिक बनाम अयांत्रिक जीवन

यांत्रिक बनकर जीने में सहूलियत है परन्तु इसतरह जीते हुए जीवन को समझ पाने में दिक्कत होती है इसीलिए अधिकांश लोग जीवन को समझने के ख्याल से दूर ही रहते हैं समाज अपने हित में व्यक्ति को नियंत्रण में रखने के लिए उसे यंत्रवत बना देता है     -अरुण        

परम बनाम संकोच

परम आकाश में व्याप्त जागरूकता कण कण की गहराई में प्रकाश की तरह उपस्थित है परन्तु किसी भी संकुचित चेतना से उलझा मस्तिष्क परम आकाश की केवल   कल्पना कर सकता है वहां उपस्थित नहीं हो सकता तात्पर्य यह कि परम यानि सत्य, संकोच यानि असत्य या भ्रम/माया से गुजरकर उसे अनुभव कर सकता है परन्तु असत्य सत्य को समझ नही सकता -अरुण    

सभी भेद हॉरिज़ान्टल हैं

उपवन में सभी फूल जी रहे हैं अपने एक जैसे जीवंत वातावरण में परन्तु बाजार नहीं पहचानता उनके इस सम-समान सहस्तित्व को, बाजार के मूल्य-जगत में तो गुलाब महंगा है और गेंदा सस्ता परमात्म जगत में सभी एक जैसे हैं परन्तु समाज या इस वस्तुजगत में कोई ऊँचा है और कोई नीचा -अरुण