मन विवेकी बने, विवेक मनमानी नहीं
धर्मग्रंथ ‘गीता’ मुझे सही जानकारी देता है
वह कहता है कि
‘विवेक मन को मनमानी
करने से रोकता है’
पर यह मूल्यवान वचन अभी भी
मेरे प्राणों का हिस्सा
नही बन पाया है ...... इस बात का एहसास
मुझे कल परसों की घटनाओं से हुआ
मैं कल के दिन
अपने अप्रिय जनों के साथ
हिंसा करता रहा.
लेकिन यह बात मन को चुबती रही
पर मेरा मनमानी विवेक मुझे कहता रहा-
कोई पछतावा मत करो
क्योंकि परसों तुम पूरे शांत थे,
उस दिन अपना पूरा दिन तुमने
बिना किसी हिंसा के गुजारा था
सो तुम्हारे जैसा आदमी हिंसक नहीं
कहलाया जा सकता
मेरे मनमानी विवेक ने मेरे मनमानी मन को
Justification की एक अच्छी खुराक
पिला कर शांत कर दिया था
-अरुण
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