किसी अनजान शहर में ......



किसी अनजान शहर में
राह चलते जो भी दिखता है
उसे हम देखते जाते हैं -
आदमी, पेड़, वस्तुएं, दुकाने ऐसे ही
सबकुछ - उनसे एक रिश्ता तो बनता है
पर न तो हम उन्हें स्वीकरते हैं और
न ही उन्हें नकारते हैं.
ऐसे जुड़कर भी अनजुड़े रहे रिश्ते में
आदमी का स्व (Self) उघाड़ता जाता है
बिना किसी कोशिश के भीतर बाहर का अभिन्न्त्व
खुला हो जाता है
आदमी के ‘भीतर’ का उसके ‘बाहर’ से यही
खरा रिश्ता है
परन्तु हम तो हमेशा पूर्वग्रहित (biased और prejudiced)
रिश्तों में ही जीते हैं
-अरुण

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