जरूरते उभरती हैं पर ......
ठन्ड
की ठुठरन को तपिश की जरूरत थी
जली
आग दहकी ज्वाला, धुआं भी उठ्ठा,
कुछ
ही थे जो आग के सामने अपने को
सेंकते
बैठे पर
अधिकतर
गैरजरूरी कामों में उलझ गए,
कुछ
धुंए पर लटककर उड़ गए
कुछ
ज्वाला के चित्र बनाते बैठ गए
कुछ
ने आग की खोज पर किताबे पढ़ना
जरूरी
समझा, कुछ को आग से बनती
राख
को रगड़ने का चस्का लग गया
जरूरते
उभरती है पर अपनी तीव्रता कब और
कैसे
खो देंगी – कहा नहीं जा सकता
-अरुण
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