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Showing posts from November, 2014

दो रुबाई

 अंधेरा ही है जागीर-ओ-वसीयत है अंधेरे से ही इंसा की बनी नीयत है अंधेरे ने उजाले को नही देखा कभी बेअसर रह गया इंसान, ये हक़ीक़त है ********************************* बंद आँखों से टटोलो तो खोज बाकी है बंद आँखों से पिलाये अजबसा साक़ी है? ये तजुर्बे ......जो आतें हैं निकल जाते हैं एक भी ऐसा नही..जिसपे नज़र जाती है ************************************ - अरुण

दो रुबाई आज के लिए

अज्ञान में पड़ा हूँ...इंसा को रंज जो है करुणा तो फैलती है.. इंसा ही तंग जो है सदियों से खोज जारी.. पर रौशनी न आये चर्चा बहस.. फ़िज़ूल .. दरवाज़ा बंद जो है *************************************** थोड़ा ही ज्ञान.. इतराते बहोत रस तो नदारद.. चबाते बहोत न सोता, न नदिया, न दरिया ही देखा मगर पार जाने की बातें बहोत *************************************** - अरुण

दो रुबाई आज के लिए

मेरा..मेरा- कहना काम आया नही पकडे रख्खा कुछ भी दे पाया नही बेदरोदीवारसी दुनिया जिसे कोई दुश्मन.. कोई हमसाया नही ******************************* कहना उन्हें फ़िज़ूल.. सुनना जिन्हें सज़ा है वैसे भी कह के देखा जैसे उन्हें रजा है लफ़्ज़ों की कश्तियों से बातें पहुँच न पाती एकसाथ डूबने का कुछ और ही मज़ा है *********************************** - अरुण

आज की तीन रुबाई

आज की तीन रुबाई ********************* 'मै' पुराना...लग रहा फिर से जवां याद में ही ख्वाब होता है रवां 'मै' धुआँ..इसके अलावा कुछ नही जल गयी जो जिंदगी उसका धुआँ ******************************* बेलफ्ज् ख़ालीपन था.. पूरा भर दिया जो नया देखा.. ख़याली  कर दिया सूरत-ए-लम्हात देखी ही नही दस्तक-ए-लम्हात से दिल भर दिया *********************************** हम किसी भी हाल में .. भरपूर होते हम किसी के साथ भी...खुशनूर होते ये अकेलापन हमें महफ़ूज़ लगता जोड़ क़ुदरत के..न दिल से दूर होते ******************************* - अरुण

ज़िंदगी

ज़िंदगी ------------ ज़िंदगी छोटी.... बहुत छोटी..... बहुत छोटी है ना समझ पाए ज़ेहन....जिसकी पकड मोटी है ओंकार कहो..अल्लाह कहो... या गाॅड कहो..... जो नाम कहो हर नाम की चौडाई..... बहुत होती है ना समझ पाए ज़ेहन....जिसकी पकड मोटी है चिंटी के कदम... रफ्तारे अहं....धड़कन की रिदम .... हो कोई नटन भीतर पल के... इक उम्रे रवां होती है ना समझ पाए ज़ेहन....जिसकी पकड मोटी है सूरज की किरन....सामाजिक मन....ख़ामोश श्वसन....हो कोई हरम हर पेहरन में.....इक रूह बसी होती है ना समझ पाए ज़ेहन....जिसकी पकड मोटी है ज़िंदगी छोटी.... बहुत छोटी..... बहुत छोटी है ना समझ पाए ज़ेहन....जिसकी पकड मोटी है - अरुण

सच्चाई अकेलेपनकी

सच्चाई अकेलेपनकी ********************** आदमी अकेला आता है, अकेला ही जाता है।इस आने और जाने के बीच के दिनों में, भीड़ की ज़िंदगी जीता है। भीड़ ने रची हुई ज़िंदगी की गिरफ़्त में रहकर वह अकेलेपन की सच्चाई को लाख कोशिशों के बावजूद भी महसूस नही कर पाता। आदमी के सारे फ़लसफ़े (Philosophies) इसी अकेलेपन की चर्चा करते हैं। मगर वही इसे महसूस कर पाते हैं जो भीड़ की ही नही, सारे फलसफों की गिरफ़्त से भी... दूर निकल जातें हैं। - अरुण

एक गजलनुमा नज़्म

मालूम हो सुबह को... कहाँ पे आना है अंधेरे में दिया.. जलाए रखिये ******** गर आँखों को परछाइयाँ सताने लगें रोशनी पे आँखें .... गडाए रखिये *************** आसमां भी उसमें सिमटना चाहेगा मुहब्बत को ऊपर.... उठाए रखिये ***************** किनारे भी टूटेंगे किसी रोज़ आख़िर तूफ़ाँ को अपना .... बनाए रखिये ****************** आसमां से जो टूटा.. नही लौटा तारा हर मौज को.. समंदर में मिलाए रखिये ********************************** - अरुण

रिश्ते ही जोड़ते हैं.. रिश्ते ही बाँटते हैं

रिश्ते नातों के मकड़जाल में हरेक कोई उलझा हुआ है।इस मकड़जाल के किसी एक हिस्से में अगर कोई अच्छी-बुरी घटना या बदलाव हो जाए तो उसका असर मकड़जाल के किसी दूसरे हिस्से के नाते संबंधों पर हुए बग़ैर नही रहता।दो सगे भाईयों में घटे वैमनस्य का असर बड़ा दूरगामी होता है। उन सगे भाईयों के चचेरे, ममेरे, फुफेरे.... भाई और बहनें भी पक्षविपक्ष की छूत एवं ग़लतफ़हमियों के असर में आकर, अलग अलग खेमों में बँट जाते है। रिश्ते ही जोड़ते हैं.. रिश्ते ही बाँटते हैं। क्या रिश्तों की निरपेक्षता एवं स्वास्थ्य बनाए रखना बहुत मुश्किल है? - अरुण

स्मृति-अज्ञ और स्थितप्रज्ञ

हम सभी प्रायः स्मृति में उलझा हुआ जीवन जी रहे हैं यानि अपनी मौलिकतासे..... मूल-स्थिती से अपना ध्यान हटाये हुए हैं, स्मृति-अज्ञ हैं।अपनी मौलिक अवस्था पर जागा हुआ आदमी, आत्मस्थ यानि स्थितप्रज्ञ होता है। ऊपर लिखा जीवन-तथ्य...अवधानमय ध्यान को ही उजागर हो  सकता है, स्मृतिबद्ध ज्ञान को नही। - अरुण

निराकार ही साकार जैसा

निराकार ही साकार जैसा ************************** कमजोर और चौखट में उलझी आँखो से देखते हो इसीलिए दुनिया नजारा बनकर दिख रही है चौकट न हो और आँखे भी अगर सबओर का सबकुछ एक ही बार में देख सकेंगी तो नजर आनेवाली यह दुनिया अदृष्य हो जाएगी - अरुण

धर्म

धर्म ****** हमें हमारे सकल आवरण के साथ जो धारण करता है - वह है धर्म हम जिसे धर्म समझकर धारण और ग्रहण करते हैं - वह धर्म नही तथाकथित धार्मिक कर्म है - अरुण

संस्कारों की मिर्ची

संस्कारों की मिर्ची ******************* परिवार और समाज आदमी का है मित्र भी और शत्रु भी आदमी को समाज के अनुकूल बनाता है इस लिहाज़ से है...मित्र पर सच जानने के मार्ग में रुकावट बनता है इस हिसाब से है.... शत्रु बचपन में ही संस्कारों की मिर्च खिला दी जाती है मिर्च से जिसका मुँह जला हो वह तो पानी ही चाहेगा मीठा छोड दूसरे किसी स्वाद की कल्पना भी नही कर सकता सच वही जान सकेगा जिसके चुनाओं पर किसी का कोई भी बंधन न हो संस्कार आदमी को बाँधे रखते हैं, चुनाव की आज़ादी से वंचित रखते हैं - अरुण

'प्यास' और 'पानी'

'प्यास' और 'पानी' ******************* 'प्यास' लगती ही न हो, तो 'पानी' क्यों खोजे आदमी ? आज की (शायद हर वक़्त की ) शिक्षा पद्धति 'पानी' तो उपलब्ध करा देती है परंतु 'प्यास' नही जगाती - अरुण

ईश्वर है या नही ? .....

ईश्वर है या नही ?... ************************** ईश्वर है या नही ?-   यह बात समझ में न आयी है हाँ, यह निश्चित है कि  'मै' नही हूँ जो है वह है ..सिर्फ़ स्मृति का एक जीता बवंडर जिसे यह बंदा 'मै' कहता है - बस, यही बात है जो साफ साफ़ नज़र  में आई है - अरुण

समय है.. एक का एक...eternal ..... सनातन

समय है ...अविरत एक का एक..eternal....सनातन ... ************************************************* जहाँपर.. कालनिद्रस्थ आदमी का .....'भूत' (past) सर उठाता है....उसके 'भूत' को लगता है वह है  ...'वर्तमान' । जब 'भूत'.. स्वयं में झाँकता है.. उसे लगता है .. वह है...'अतीत' । जब 'भूत' स्वयं में बदलाव  देखता है.. तब उसे  वह ..'भविष्य' जैसा लगता है । केवल कालजागृत के लिए ही समय है ..अविरत एक का एक...eternal, सनातन-वर्तमान - अरुण

ऊर्जा - मायावी भी.. सात्विक भी

ऊर्जा के अदृश्य गुबारे के बाहर-भीतर स्मृतिकी आभा विचर रही है ।स्मृति-आभा ऊर्जा के प्रभाव बल पर, हर क्षण नये आकार में ढलती बनती विचर रही है । इस स्मृति-आभा में भ्रम निर्माण की अद्भुत शक्ति है । इस आभा के क्षण क्षण टूटते जुड़ते माया का विचार-विश्व सृजित हो रहा है, ऊर्जा प्रवाह पर स्मृति के इस अविरत बिंबन के कारण, बिंबन को विचार-गति का अनुभव हो रहा है । गति से विचार और विचारक का भ्रममूलक द्वैत या division उभर रहा है । इसतरह, ऊर्जा बिंबन के प्रभाव में मायावी हो जाती है, हालाँकि , बिंबन न हो तो यह सदैव सात्विक ही है - अरुण

जिंदगी जंग है ..लढोगे तो जीतोगे'- यह बात सर्वत्र लागू नही ।

हमने सीखा है बचपन से कि 'जिंदगी जंग है ..लढोगे तो जीतोगे' परंतु जंग किसे कहें या समझे? - यह जानने में भूल की है ।इसीलिए शायद हम बाधाओं को हटाते समय... नये झगडे मोल ले रहे हैं । संवाद के लिए नही, बल्कि संघर्ष के लिए आमने सामने खड़े हैं.... अपनों की सुविधा के लिए नही, बल्कि परायों को परास्त करने इकट्ठा हो रहे हैं । जंगलों से प्राण सेवन करने के बजाय,  उन्हें अड़चन समझकर काट रहे हैं । बाहरी संघर्ष अलग हैं.... तो भीतरी बिलकुल ही भिन्न । अहंकार से फली सारी बीमारियों से झगड़ने में बाहरी तरीक़े काम नहीं आते । बाहरी तरीके बाधाओं को नष्ट करते या उखाड़ फेंकते हैं । भीतरी तरीक़ा... अहंकार से फली बीमारी को स्पष्ट-समझ की आँखों  से निहारते,  उसे उसके स्थान पर ही विलोपित करता हैं, उससे झगड़ता नही । अंधेरे से झगड़ना नही है, प्रकाश को ले आना यानि समझ को जगाना है, ..बस । - अरुण

इसे ग़ौर से पढ़ें और विचारें

 “ऊंचाई नापनी हो तो किसी छोटी-ऊंची चीजका इस्तेमाल होता है, मतलब ऊंचाई ही नापती है ऊंचाई को, इसीतरह अन्तस्थ के या भीतरी दृश्य को देखते समय, अन्तस्थ की प्रतिमा या दृश्य (अहं/मै) ही उसे देखता है” - इस तथ्य को जो ‘देखने’ के दौरान देख सके उसका देखना गुणात्मक रूप से भिन्न होगा - अरुण

अभी इसी साँस में .....

अभी इसी साँस में जी रहा है...अस्तित्व असली भी और नक़ली भी असली की ख़बर नही नक़ली ही सच जैसा असली की ऊर्जा से नकली में बल बैठा इसी बल पर दुनियादारी चल रही है बाती जले बीच में..इर्द गिर्द परछाई हिल रही है साँस को परछाई का ख़्याल है पर जलती बाती पर ध्यान ठहरता है कभीकदा ही - अरुण

न कोई तमाशा है, न कोई तमाशाई

अस्तित्व  ही जीता है, उसके जीने में ही करना, होना जैसी सारी कृतियाँ और क्रियाएँ समाहित हैं इसके अलावा यहाँ न कोई कर्ता है, न कोई कर्म है, न है कोई तमाशा और न ही है कोई तमाशाई - अरुण

मर चुका ही डर रहा है...

जो मर चुके क्षण याद उनकी आज ज़िंदा है याद को ही सौंप रखी ज़िंदगी की बागडोर...... अब ज़िंदगी तो मौत के ही हांथ ज़िंदा है फिर भी डर है मौत ना जाए निगल जिंदगी के बचे पल जिन पलों मे मौत की ही साँस ज़िंदा है - अरुण