भ्रम से भ्रम फलते है, जागृति से ढलते हैं



पेड़ भरम का तन गया नीचे फैली छाय
भरम अचानक टूटते धूप ही धूप सुझाय
..
एक भ्रम दूसरे को ....और फिर उसके आगे तीसरे को जन्मता है. सारी माया सृष्टि इन्ही भ्रमों के जाल से बनती है. भ्रम का उत्पत्ति स्थान स्पष्टतः दिख जाते ही माया जगत ढल जाता है.
पेड़ न होते भी अगर दिख पड़े तो पेड़ की छाया का दिखना भी जरूरी हो जाता है और फिर उस छाया में विश्राम की इच्छा भी पनप सकती है. ‘पेड़ का दिखना’ केवल एक भ्रम है, यह समझ आते या इस बात की जागृति होते ही, पेड़ का भ्रम खो जाएगा और असलियत दिख पड़ेगी, ठीक उसी तरह जिस तरह सूरज के ढलते आसमान में तारे दिखाई देने लगते हैं. माया का सूर्यप्रकाश ओझल होते ही तारों की वास्तविकता जाग उठती है.
-अरुण   
  

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