देखनाभर ही सबकुछ

अर्धनींद और अर्धजागृति में ही सांसारिकता गतिमान है। उसे मन के माध्यम से ही जीना पड़ता है। उसका सारा कारोबार - पाना खोना, लेना देना, हसना रोना ...... मन की ही लीला है जिसमें प्रयास और समय की अवधारणा का विनियोजन अपरिहार्य होता है। पूर्ण जागृति में गहन व्यापक समझ फलित होने से - प्रयास, समय, मार्ग की कोई अवधारणा जन्मती ही नहीं, बस देखते ही कृति, - देखनाभर ही कृति है।
- अरुण 

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