'जानना' और 'मानना'

ज़िंदगी में 'जानना' और 'मानना' दोनों एक दूसरे के परिपूरक होते हैं । जानने के लिए शुरूआत कुछ मानकर ही करनी पड़ती है और जब मानना जानकारी से मेल खाता हो तभी वह विवेक के दायरे में रह पाता है । सत्य की खोज में श्रद्धाधारित विवेक और विवेक आधारित श्रद्धा, दोनों मिलकर सहायक बनते हैं । यह संतुलन जो खो बैठते हैं वही अतितार्किक या अंधविश्वासी समझे जाते हैं ।
- अरुण

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