माने हुए को ही मन कहते हैं
जो
है ही नही
फिरभी
जिसके होने को मान लिया गया है,
उसीको
मन कहते हैं
यह
‘मान लिया गया हुआ’ यानि मन ....
क्या
कर सकता है सिवा ‘मानने’ के? ..मानने को ही फैलाने और गहराने के ?
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नापना,तोलना,गिनना,सोचना-विचारना,पाना-खोना
और परिणाम के रूप में हसना-रोना और प्रतिक्रिया के रूप में क्रोध, लोभ आदि को
प्रकट करते रहना ... ये सब इसी ‘मानने’ की क्रिया का ही विस्तार है, गहराई है
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सागर
के कम्पन को लहर मान लिया गया है, अब यह मान्यता ही लहरों को गिनने, छोटी बड़ी मानते
हुए उनमे तुलना साधने का काम करने लगती है.
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सामने
पेड़ हो ही न, फिर भी यदि मान लिया गया कि
है... तो फिर... ‘वह पेड़.’ बढेगा, फैलेगा, लहराएगा ...सबकुछ वह करेगा जो एक जीवंत पेड़
करता है
-अरुण
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