यहाँ मै अजनबी हूँ.........

अस्तित्व के तल पर जा देखने पर जो सच्चाई सामने आती है, उसे स्वीकारना सहज नही है । इस मायावी जगत में व्यक्ति हैं, समाज हैं,  आपसी संबंध हैं, आपसी परिचय या अजनबीपन ...... ये सबकुछ है । परंतु यदि अस्तित्व बोल पड़ा तो कहेगा .....

व्यक्ति क्या होता है?.. नही जानता, समाज तो कभी देखा ही नही, कोई या कुछ भी जब किसी से जुदा नही तो फिर संबंधों का सवाल ही कैसा? मै हूँ और केवल मैं ही हँू ़़़़... अविभाजनीय (individual), अगणनीय, अभेद्य। न मेरे भीतर कुछ है और न कुछ भी है मुझसे बाहर.... सो..  न मैं किसी को जानू, न कोई हो अलग कि मुझे जान सके।
मेरी इस अजनबी अवस्था में मै हँू तो... मगर अजनबी हँू।
- अरुण

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