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Showing posts from August, 2011

अभी भी भ्रष्टाचार के पक्ष में कोई नारा नही

सभी तरह के लोग भ्रष्टाचार के निर्मूलन के विचार से सहमत दिखाई देते हैं, - वे भी जिन्हें भ्रष्टाचार करनेवालों से रोज ही सहयोग करना पडता है, वे भी जिनका दैनिक जीवन ही भ्रष्टाचार पर आधारित है, वे भी जिनको भ्रष्टाचार के बदौलत ही समाज में प्रतिष्ठा और सत्ता प्राप्त है और कुछ गिन चुने वे भी जो शायद सदाचारी हैं. ........ आचरण का भले ही अवमूल्यन हुआ हो पर सामाजिक मूल्यों का नही. उदाहरण के लिए अगर रेलगाड़ी वक्त पर नही चलती तो इस बात से परेशान लोग रेल विभाग को कोसतें तो है पर अभी तक किसी ने यह नही कहा की रेल के टाइम टेबल की कोई जरूरत नही. अभी तक किसी ने भी भ्रष्टाचार के पक्ष में नारा नही लगाया ............................................................................................................................ अरुण

गलतियाँ जनता भी कर रही है

वास्तव में, हमारी चुनाव पद्धति प्रतिनिधियों के चयन का काम आंशिक रूप से कर रही है (क्योंकि वोटिंग का प्रतिशत बहुत कम है) और सही प्रतिनिधित्व दिलाने के काम में तो पूर्णतः विफल हुई लगती है क्योंकि हमारे प्रतिनिधि हमारी आवाज को संसद तक पहुंचाने के बजाय अपने स्वयं का अस्तित्व बचाने, अपने पार्टी का हित देखने और अपने व्यक्तिगत हित के लिए किये जाने वाले कारवाइयों से ही अधिक जुड़े दिखते हैं. यही कारण है कि अन्नाजी के जन-आंदोलनों जैसे कई जन-आंदोलनों की देश को जरूरत है. .................... परन्तु जन-आंदोलनों को भी बहुत सतर्कता के साथ चलाना होगा. क्योंकि हो सकता है कि जिस तरह सांसदों की खरीद-विक्री होती है वैसी ही जन-अन्दोलकों की भी होने लगे.. कहीं पक्षीय-राजनीति का रोग इन समाज-संगठनों को भी न जकड ले ................ संक्षेप में, उपाय कई हो सकतें हैं परन्तु जन-जागरूकता का कोई विकल्प नही. अगर प्रतिनिधि गलत हैं तो मतलब गलतियाँ इस देश की जनता भी कर रही है, इस तथ्य को नजर अंदाज न किया जाए. .....................................................................................

अन्ना का अनशन आज समाप्त

यह बहुत ही समाधान की बात है कि आज सुबह अनशन टूटने जा रहा है भ्रष्टाचार का संकट तो है पर उसकी तो अब आदत पड़ चुकी है. इतनी अधिक आदत की अब उसके प्रति अभी कोई अर्जेंसी महसूस नही होती. अभी जो सबसे बड़ा संकट देश में था, वह था अन्ना का अनशन. यह अनशन न उनके स्वास्थ्य लिए ठीक था और न ही देश के स्वास्थ्य के लिए. .............. जन आक्रोश के दबाव में कुछ न कुछ तात्कालिक हल निकालना जरूरी ही था और वह सांसदों ने एक मत बनाकर निकाल भी लिया पर यह सारा एपिसोड चिंतन के लिए कुछ विषय छोड़ गया है .......... क्या यह सत्याग्रह सही उद्देश्य की दिशा में किया गया दुराग्रह नही था?- क्योंकि इसमे झलकती हठधर्मिता देश में आतंरिक अशांति और अराजकता फैला सकती थी. अच्छी बात यह थी की सारा आन्दोलन अहिंसा के दायरे में रहते हुए किया गया था और इसके लिए आन्दोलन के आयोजकों की सराहना करनी ही होगी. उनका धन्यवाद क्योंकि १२ दिन तक चला यह आन्दोलन शांति बनाये हुए था. .......... कुछ निष्कर्ष – १) राजनीतिज्ञों और जनता के बीच का संपर्क क्षीण हो चुका है और यही कारण है कि न सरकारी पक्ष और न ही विपक्ष यह समझ प...

भय के वातावरण में देश के निर्णय –अन्ना का अनशन

आज अगर कोई हल निकलता भी है तो क्या वह सही और स्थायी हल होगा? बेहतर यही होता कि बात सीधे अन्नाजी से की जाती मैनेजरों से नही. अनशन के माध्यम से सारी मांग प्रत्यक्ष रूप से अन्नाजी कर रहे हैं और उनके मैनेजर अन्ना के अनशन को आगे रखकर अपने स्वयं के महत्वोत्थान और अपने को प्रोजेक्ट करने की अचेतन इच्छा के अधीन हुए दिखते हैं अन्नाजी के पास काफी अनशन-स्टेमिना है और इसीलिए उनके मैनेजर राष्ट्रहित के नाम पर इस स्टेमिना का शोषण करते दिखते हैं ------------------ दूसरी तरफ इस प्रसंग से भयभीत सरकार, विपक्ष और सारी संसद हडबडाहट में कुछ भी करने को तैयार हो गई है क्या ऐसी हडबडाहट देश के हित में होगी ? इस बात को मीडिया और समाज का ऑब्जेक्टिव निरीक्षक भी जान रहा है पर सच का उच्चार करने से डर रहा है ........................................................... अरुण

पकने से पहले टपकना

यदि कोई कहे - देखकर जल ओंठ पर तृष्णा जगाऊंगा अँधेरा छोड़ जाएगा तभी दीपक जलाऊंगा - तो बात अटपटी लगेगी क्योंकि – जल से तृष्णा बुझती है, जागती नही दीपक आने पर अँधेरा जाता है, अँधेरा जाने के बाद , दीपक नही आता ------- कहने का मतलब – ‘ अज्ञान ’ जब चुबता है तभी ज्ञान की खोज शुरू होती है. उससे पहले शुरू होनेवाली खोज – खोज के लिए होनेवाली सामाजिक या मनोवैज्ञनिक बाध्यता से फली कृति है, असली खोज नही यही कारण है कि आजतक गीता पढकर किसी को ज्ञान नही हुआ हाँ, जिसे अज्ञान का बोध हुआ ऐसो में से कुछ लोग गीता पढ़ने के लिए प्रेरित हो सकते हैं पर बहुदा अधिकांश लोग आदतवश या संस्कारों के कारण गीता जैसे ग्रंथोंको पढने की औपचारिकता निभाते दिखते हैं ....................................................... अरुण

हिंसा ही है पर अहिंसक

सामने वाले की छाती पर छूरा रखकर उससे अपना काम करवा लेना हिंसा कहलाता है पर क्या अपनी ही छाती पर छूरा रखकर दूसरे से अपना काम करवा लेना हिंसा नही है? हिंसा ही है पर अहिंसक ................................... अरुण

गजल – आग से उठ्ठा हुआ

खोजना है आग, कैसे पा सकूं ? मै धुआं हूँ आग से उठ्ठा हुआ ...................................... सोये हुओं के धर्म का आधार क्या खाब उनको नींद में दिख्खा हुआ .................................... नाम बाहर से गया टांका मगर घुस गया भीतर बड़ा पुख्तः हुआ ............................................. पेड तो अपनी जगह ही मस्त है जंगलों की गोद में रख्खा हुआ ............................................ राह से जो जा चुका उस वक्त से हाय, क्योंकर मै अभी लटका हुआ ................................................ अरुण

एक आध्यात्मिक शेर

खोजना है आग कैसे पा सकूं ? मै धुआं हूँ आग से उठ्ठा हुआ ........................................ अरुण

संबंधों की नाजुकता

दो लोगों के बीच में होनेवाले लेनदेन ( transcations) को आपसी सम्बन्ध कहते हैं यह लेनदेन एक दूसरे के बीच परस्पर बनी धारणाओं से फलतें हैं इन सम्बब्धो की नाजुकता को ठेस न पहुंचे इस बात की जिम्मेदारी दोनों पक्षों की होती है उदाहरण के लिए बाप की जिम्मेदारी है कि वह यह देखे कि वह कहीं अपने बच्चों पर अनावश्यक बोझ तो नही बन रहा और उसी समय बेटों-बेटियों को इस बात का ख्याल रखना होगा कि उनके पिता कहीं किसी जायज अपेक्षाओं से वंचित तो नही हो रहे हैं ............. बाप यह कभी न समझें कि उनकी हिफाजत बेटे-बेटियों का कर्तव्य है और बेटे-बेटी यह न समझें कि पिता को सम्भालकर वह कोई उपकार या कोई बहुत बड़ा बोझ ढो रहे हैं परस्पर परिपूरक समझ जरूरी है ................................................................ अरुण

आकाश और समय एक का एक

दृष्टि-क्षेत्र की व्यापकता पर हमारी समझ निर्भर करती है जो अस्तित्व को पूरा का पूरा देख लेता है उसकी समझ में अस्तित्व एक का एक है कहीं कोई भेद नही इसी तरह जो समय सनातनत्व को अपने जीवंत अवधान में समझ रहा हो उसके लिए समय-भिन्नत्व का कोई अस्तित्व नही ................................................ अरुण

केवल पेड दिखे, पत्ते नही

बीज फला और पेड बन कर उभरा परन्तु मै केवल देख पाया पेड को ही, पत्तों को नही समय के गुजरते कुछ दिनों के बाद, अचानक पत्ते दिखे पर पेड लुप्त हुआ दृष्टि से ---- ऐसा होने से मैंने समझा पेड और पत्ते दो भिन्न बातें हैं ठीक वैसे ही जैसे मै जन्म को मृत्यु से भिन्न समझता हूँ मै देख नही पाता कि जन्म में ही मृत्यु और मृत्यु में जन्म है .................................................................... अरुण

अस्तित्व की एकात्मकता

“ वर्षा होने वाली है, बदली छाई है और पंख-पसारे हुए मोर नाचने लगे हैं अनायास ” - ऐसा कहने के बजाय किसी ने कहा – “ अपने बादलों और मोर-पंखी रंगों को उछाले वर्षा नाच रही है ” ........................ पहली अभिव्यक्ति, मन ने रची, तो दूसरी- दृदय से निकली पहली में घटनाओं का क्रम है तो दूसरी में अस्तित्व की एकात्मकता ...................................................... अरुण

अभिव्यक्ति की गुणवत्ता

जल में डूबे हुए द्वारा जल की अनुभूति का बयान और घाट पर बैठे हुए का जल-वर्णन बिलकुल ही भिन्न होगा पहले की अभिव्यक्ति जीवंत होगी तो दूसरे की अनुमानात्मक .............................................. अरुण

दो अध्यात्मिक शेर

रोशनी में छाँव की कोई वजह बनती नही पर बनी ये छाँव मन की रोशनी के तार से कोशिशों से पा लिया भगवान, ऐसे भी यहाँ और कुछ ने सहज ही में पा लिया अवतार से ............................................................... अरुण

जिंदगी जीना और जिंदगी मरना

जो हर बीते पल के बाबत मरना जानते हैं वे जिंदगी जी रहे हैं ऐसी जिन्दा जिंदगी से दूर हैं जो, वे जिंदगी मर रहे हैं ........................................ अरुण

दो अध्यात्मिक शेर

सत्य को यह गंध माया ना पकड़ पाए कभी हो प्रशंसा गलियां हों, ओंठ उनसे मुक्त हैं ................................... जागना इतना गहन कि रिक्त पूरा हो जेहन इस स्थिति में जो भी पहुँचा वो ही असली भक्त है ........................................ अरुण

दो तरह की आँखें

केवल बाहर के परिदृश्य को देखनेवाली आँखें लेकर संसार में उतरा यह आदमी समाज के सहयोग से अपने भीतर अपने अनुभवों पर बोलनेवाली आँखें जगाता है और फिर इन बोलती आँखों से पूछकर ही जिंदगी की राह पर हर कदम रखता है इसी लिए जो जैसा है उसे, वैसा ही देख नही पाता .............................................. अरुण

पूर्णत्व का भान ही सत्य-ज्ञान

मूलतः सामने का परिदृश्य या वस्तु या रास्ता बिलकुल साफ साफ दिखता हो तो किसी भूल या दुर्घटना या भटकाव का भय नही रहता सार यह की जब दृष्टि में स्पष्टता हो तभी आदमी स्वयं को उपर्युक्त भय से मुक्त महसूस करता है ......................... जीवन के सफर में देखने का काम केवल आँखें हीं नही करती तो जानकारी, समझ, तार्किक सोच, चिंतन-मनन, विश्लेषण जैसे साधनों का आदमी उपयोग करता रहता है परन्तु इन सभी का उपयोग तभी सटीक और सही होगा जब परिदृश्य पूरी तरह सामने खड़ा हो, आदमी की दृष्टि और समझ से कुछ भी छुपा न हो परिदृश्य की व्यापकता और सघनता अगर स्पष्ट हो तो बातें भी साफ साफ अवगत होती हैं. ऐसी ही स्पष्टता को ज्ञान या सत्य कहेंगे, परिदृश्य की आंशिक समझ को अज्ञान या असत्य कहना होगा ........................................................................ अरुण

मेरी आत्मा

मै हूँ भीतर लहराती स्मृति, विचार, मनन और भावनाओं की आत्मा, परन्तु मेरी आत्मा का पता तो शायद मेरी आत्मा को ही हो .................................... अरुण

तात्पर्य गीता अध्याय १८

सृष्टि- दृष्टि का भेद फल, ज्ञान प्राण का भेद / देव-कृपा के लाभ से कर्म होत संवेद // बोध फले जब सकल का होत न दृश्य विभक्त / ब्रह्म फले तब चित्त में, निष्कर्मी प्रभु-भक्त // ................................................ अरुण

तात्पर्य गीता अध्याय १७

वही भाव श्रद्धा हुआ जो सत् के संग होत / भक्त वही जो कर्म को सुश्रद्धा से बोत // ॐ-तत-सत् यह घोषणा, ब्रह्मरूप स्वीकार / शेष नही कर्ता कुई, सभी ब्रह्म परिहार // ................................................ अरुण

तात्पर्य गीता अध्याय १६

सत्-स्वरूप को तत्व से जानत अहम हिराय/ अभय सहज फल चित्त में, मृत्यु से डर नाय // काम क्रोध भय लोभ ही, पाप नरक के स्रोत / आत्म-जागरण की स्थिति सब दोषों को खोत // ................................................ अरुण

तात्पर्य गीता अध्याय १५

इस संसारी चित्त में, वृक्ष कल्पना एक / उलटा टंगता मनस पर, स्वप्न- रौशनी फेक // स्वप्न-रौशनी गुल हुई माया का हो नाश / क्षर-अक्षर के पार ही, दिखता ब्रहम प्रकाश // ................................................ अरुण

तात्पर्य गीता अध्याय १४

सत् रज तम के त्रिगुण से कैसे होऊं पार / ‘स्व-शरीर मेरा नही’ धर यह भाव अपार // सत् सागर में डूबना, बनकर सागर नीर / यही भक्ति का सार है, यही भक्त का तीर // ………………………………………… अरुण

तात्पर्य गीता अध्याय १३

ध्यान जगाए ज्ञान को, ज्ञान जगाए बोध / बोध बदलता चित्त को पंडित बना अबोध // ......... यह शरीर आत्मा मिले, फलती नश्वर सृष्टि / आत्मा तो निर्दोष है, बिन कर्ता की दृष्टि // ................................................ अरुण

तात्पर्य गीता अध्याय १२

भक्ति में सक्ती नही केवल स्थिर विश्राम / जहाँ बहाए यह नदी बहता रह अविश्राम // जो ईश्वर से जुड गया खुद को देत भुलाय / फिर हरेक से दोस्ती हर हालत रम जाय // ................................................ अरुण

तात्पर्य गीता अध्याय ११

बुद्धि तो गिनती करे उसकी जो न दिखात / देखा जिसने सकल को वह गिनती बिसरात // देव-मूर्ति में घुस पडो, विश्वरूप को जान / भटक न पाए वह जिसे सकल रूप का ध्यान // ……………………………………… अरुण

तात्पर्य गीता अध्याय १०

ॠषि मुनि सब चूकते, समझ न पाया वेद / पूर्ण समर्पित भक्त में, बचा न कोई भेद // टहनी छोटी या बड़ी, पत्ते गिनता कौन / पेड दिखा अब बीज में, ध्यान बने तब मौन // …………………………………… अरुण

तात्पर्य गीता अध्याय ९

तत्व भूलकर वस्तु से, अपना मोह लगाय / मन की चुसनी चूसता आत्मबोध ना पाय // ............... कण कण में ईश्वर भरा ऐसा भाव जगात / क्षण क्षण ‘ खुद ’ ओझल करे ईश्वर ही हो जात // ................................................ अरुण