कल आज और कल


बीते क्षण-कण ही
सनातन को छूते हैं
और उसे अभी की
पहचान दे देते हैं
यही पहचान
अगले क्षण-कणों
को खुद पर ओढती हुई,
अपना लिबाज और स्वरूप 
बदलते हुए
अपना
कल, आज और कल
बनाती रहती है
-अरुण        

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