स्वधर्म



हरेक आदमी व्यापक अर्थ में
जिस स्थान पर खड़ा है
उस स्थान के अनुकूल की जानेवाली
कृति (action) ही
उसकी अपनी कृति हो सकती है

इसी स्थान-भिन्नता को
गीता में स्व-धर्म कहा गया है.
यह स्व-धर्म पूर्णतः निजी है और  
इसीलिए इसे निजता कहना भी उचित होगा

जो जहाँ खड़ा है वहीँ से चलना शुरू करे.
अपना स्थान न पहचानते हुए,
दुसरे के स्थान को ही अपनी निजता जानकर
आगे बढ़ना सर्वथा
एक गलत कदम सिद्ध होगा

इसी निजता या स्वधर्म को
आज की भाषा में aptitude,
Mental tendency, Start-point,
Thinking and understanding pattern आदी भी
कहा जाता है
-अरुण

   

Comments

yashoda Agrawal said…
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