द्वैत खेला चल पड़ा



द्वैत खेला चल पड़ा जीवन सफ़र के साथ
यह यहाँपर वह वहाँपर
इसतरह खंडित हुई ये आँख तो फिर
बन गए सब दो किनारे,
इक किनारे का ही पकड़ा मैंने कसकर हाँथ
द्वैत खेला चल पड़ा तो भाव की दुनिया हुई खंडित
एक सुखमय दुजी दुखकर, एक चाही
दुजी से भय लग रहा हर बार....
जब तलक मै तब तलक तू
पक्ष से जुडकर रहे हैं वैर के सब भाव ...
द्वैत खेला चल पड़ा जीवन सफ़र के साथ
-अरुण          

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