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Showing posts from December, 2014

रुबाई

रुबाई ******** तमन्ना ही वो दुनिया है तमन्ना ही जहाँ चलती तमन्ना अहमियत की होड में, बेसुध हुए चलती तमन्ना ख़्वाहिशों की हर मुराद-ओ-ख़्वाबकी ताक़त सही ताक़त वही जब जिंदगानी होश में चलती - अरुण

रुबाई

रुबाई ********* राह काँटों से भरी है ?....बदलने से... कुछ न होगा पाँव ही तो नर्म हैं.. कर लो कुछ भी...कुछ न होगा राह से तुझको शिकायत या  शिकायत दर्द से है? दर्द को नज़दीक कर लो.. फिर चलो... फिर कुछ न होगा - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** दुनिया में जितने बंदे उतने ही होते आलम आपस में आलमों के रिश्ते बनाते  आलम आलम में आलमों की गिनती गिनी न जाए जिसमें सभी समाए सबका वही है आलम - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** पहुँचने में लगे गर वक़्त तो मुश्किल समझने में लगे गर वक़्त तो  मुश्किल जो पल में पहुँच जाता... समझ जाता है समझ उसकी* बड़ी अद्भुत निराली, पहुँचना मुश्किल अरुण उसकी = दिव्य दृष्टि वाला **********************************************

रुबाई

रुबाई ****** ख़्वाबों के दीप भीतर इक रौशनीसी फैले इस रौशनी में चलते दुनिया के सारे खेले करवट बदलती भीतर जबभी कभी हक़ीक़त कपती है रौशनी....उठते हैं जलजले - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** वक़्त जो बनाये इंसा की मुराद मुराद बने बिगड़े करे बरबाद वक़्त ही है इंसा का दुश्मन ज़हन इंसा का करे जिसका इजाद - अरुण

रुबाई

रुबाई ********* जबतक चले ये साँस जीता हूँ मर रहा पल पल लहर है मेरी सरिता सा बह रहा फिर भी जनम मरण की चर्चा का शौक़ है मुझसे बड़ा न मूरख दुनिया में पल रहा अरुण

रुबाई

रुबाई ******* अपने जज़्बात और ख्यालात को कब भूलोगे सारे रिश्तें हैं हक़ीक़त नही........ कब भूलोगे स्क्रीन पर आग देख उसको बुझानेवालों ये सिनेमा है.. हक़ीक़त नही ....... कब भूलोगे - अरुण

परिक्षा मन की

परिक्षा मन की ************** जब वस्तु आग के संपर्क में हो  तभी पता चलता है कि वह ज्वलनशील है अथवा नही, तापधारक है अथवा नही । समाज संबंधों में रहकर ही जाना जा सकता है कि मन प्रापंचिक है अथवा नही। - अरुण

धर्मांतरण

धर्मांतरण ************ धरम की होड में रहकर इंसा बौराया है माने कि धरम भी उसकी कुई  माया है धरम की गोद में...मगर उसको ही बेच रहा है कैसी तिजारत ये.......कैसा सरमाया है? अरुण

रुबाई

रुबाई ******* उगना है किसतरह सिखलाया ना गया बहना है किसतरह बतलाया ना गया क़ुदरत में बस इशारे नक्शों की क्या वजह भीतर की रौशनी को झुठलाया ना गया - अरुण

रुबाई

रुबाई ************ माया नही है दुनिया...... मिथ्या नही जगत मिथ्या है मन की खिड़की भ्रमराए जो जगत तनमन को जोड़कर जो देखे असीम  आलम उसकी खरी है दुनिया उसका खरा जगत - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** चलिए  इसतरह के.........न हो मंज़िल कोई हवा चले, नदी बहे............. न मंज़िल कोई चाहत की जिंदगी में....... मंज़िलें ही मंज़िलें क़ुदरत के हर सफ़र की....... न मंज़िल कोई अरुण

कुछेक पेश हैं

कुछ शेर पेश हैं **************** अबतक तो माज़ी* ही है ज़िंदा मै हूँ...तो कहाँ ?... न ख़बर मुझको ------------------------------ कब आदमी की आदमी से होगी मुलाक़ात ? अभी बस मिल रहे हैं..आपसी तआरुफ़* ----------------------------------------- बड़ा मुश्किल गुज़रना आलमी रिश्तों की गलियों से कभी वे फूल जैसे तो कभी काँटों से भी बदतर* ----------------------------------------------- माज़ी = गुज़रा वक़्त,  तआरुफ़ = परिचय, बदतर = बहुत ख़राब अरुण

दो रुबाई

दो रुबाई आज के लिए ********************** चुटकी की ही पकड में...फूला हुआ गुबारा पसरा है वक़्त उसमें दुनिया का बन नज़ारा अक्सर ग़ुबार में ही इंसा भटक रहा है चुटकी से हट गया है इंसा का ध्यान सारा **************************************** नींद में गड्डी चलाये ही चला जाता है बिन टकराए रास्तों से गुज़र जाता है फिरभी अन्जाम...हादसा ही न बच पाये कुई कुई घायल नही.. ऐसा न नज़र आता है ************************************ - अरुण

दो रुबाई आज के लिए

दो रुबाई आज के लिए *********************** आइना हो साफ़ आँखें साफ़ हों बस हक़ीक़त से तभी इंसाफ़ हो एक नन्हें की तरह देखा करो सीधा पहलू हो असल दरयाफ़* हो दरयाफ़ = दरयाफ़्त = खोजबीन ********************************* बेखुदी गर... जिंदगी किस काम की ? बेरुहानी बंदगी किस काम की ? खोज का सामान जब ज़िंदा नही जुस्तजू-ए- जिंदगी किस काम की ? जुस्तजू-ए- जिंदगी= जिंदगी की खोज ********************************* अरुण

दो रुबाई आज के लिए

दो रुबाई आज के लिए *********************** फलसफों में बहकना बेकार है मज़हबी हर सूचना बेकार है जिंदगी को ज़िंदा रहकर देखिए उसके बाबत सोचना बेकार है ************************************* पेड़ है... नीचे परछाई है समझती.. खुदही उभर आई है सोचे...पेड़ के बग़ैर भी वह ज़िंदा रहे सोच ऐसी ही....... इंसा में भी बन आई है ********************************** - अरुण

दो रुबाई आज के लिए

दो रुबाई आज के लिए *********************** नही ख्यालात-ओ-जज़्बात हटेंगे सर से जंग जारी रहे बाहर.. तो रहे भीतर से जबतलक एक भी चिंगारी रहे जंगल में नही आज़ाद कुई पत्ता...आग के डर से ************************************* मंदिरों और मस्जिदों के शिखर फ़लकों पर मज़हबी शोर के हर दौर उठे फ़लकों पर कार के पुर्ज़ों  की दुकानें कई हैं लेकिन एक भी दिखती नही कार कहीं सड़कों पर *************************************  फ़लकों पर= आकाश में - अरुण

आज की ताज़ा गजल

आज की यह ताज़ा ग़ज़ल ************************** हज़ारों हैं ...करोड़ों जीव हैं....  पर  आदमी जो समझता है..ये दुनिया है....तो केवल आदमी ही कहीं से भी कहीं पर .....जा के बसता है परिंदा मगर पाबंद कोई है..........तो कोई  आदमी ही जभी हो प्यास पानी खोज लेना.. जानती क़ुदरत इकट्ठा करके रखने की हवस.......तो आदमी ही बचाना ख़ुद को उलझन से सहजता है यही लेकिन फँसाता खुद को....बुनता जाल अपना आदमी ही बदन हर जीव को देता ज़हन..... जीवन चलाने को चलाता है ज़हन केवल .........तो केवल आदमी ही खुदा से बच निकलने की ....कई तरकीब का माहिर खुदा के नाम से जीता ..... .....तो केवल आदमी ही - अरुण

एक रुबाई

एक रुबाई ************ जी रहा उसका जनम होता नही मर गया उसका मरण होता नही 'लम्हे लम्हे में मरे......जीता वही' फ़लसफ़ा सबको हज़म होता नही ******************************* - अरुण

दो रुबाई आज के लिए

दो रुबाई आज के लिए ********************* जाना नही.. जहान से क्या रिश्ता अपना समझा के अलहिदा ही है...रास्ता अपना साहिल पे खड़ा सोच रहा... पानी में खड़ा हूँ लहरों से पूछता हूँ.. पता अपना *********************************** रात दिन दोनों ही होते .........लाजवाब जिंदगी की हर अदा है ........ बेहिजाब जो भी है सब ठीक ही.. रब के लिए अच्छा-बुरा तो आदमी का है हिसाब ******************************** - अरुण

एक गजल रुहानी

एक गजल - रुहानी ********************* क्योंकर सज़ा रहा अरे परछाईयों के घर जागोगे जान जाओगे.... सपने हैं बेअसर *********************************** कुछ साँस ले रहे हैं ......ज़माने के वास्ते हम मरे जा रहे हैं.. अपनी ही फ़िक्र कर ********************************** ग़ैरों की शक्ल में भी जो ख़ुद को देखता ग़ैरों को जान बख्शे अपनी निकालकर ********************************** उस साधुताको... कोई नही पूछता यहाँ जिस साधुता का मोल नही राजद्वार पर ********************************** जिसके लिए बदन हो किराये का इक मकान उसको न चाहिए कुई चादर मज़ार पर **************************** - अरुण

दो रुबाई आज के लिए

दिल बना ख़तरों का अरमान ही ताक़त से भर आये... क़ुर्बान ही न किनारा न सहारा न मंज़िल कोई काम आये उसके..मयन तूफ़ान ही मयन = तत्क्षण ***************************************** लिए चाहत उजाले की संवरता है अंधेरा पता किसको कहाँ से लौट आएगा सवेरा ? प्रतिक्षा है ये तीखी रात बीते बात बीते जला आख़िर अंधेरा ही जगा सच्चा सवेरा ******************************************* - अरुण

दो रुबाई आज के लिए

दो रुबाई आज के लिए ********************* आत्म-बल का व्यर्थ में गुणगान करता है परमात्म-बल ही सृष्टि का सब काम करता है काम करना शक्ति का ही काम है.. यारों! अपनी कहके उसको... अपना नाम करता है ***************************************** मँझधार से जो भागे, समझे न जीस्ते क़ुदरत ढूँढे जो बस किनारे, डरना ही उसकी फ़ित्रत सपने गुलों के हों तो काँटों से कैसा डरना? जज़्बा-ए-दोस्ती तो काँटों गुलों की इशरत जीस्त =जीवन, फित्रत = स्वभाव, इशरत= आनंद ******************************************* - अरुण

दो रुबाई आज के लिए

दो रुबाई आज के लिए ********************* पांव के नीचे जमीं है उसको देखा ही नही दर्द के भीतर उतरकर कभ्भी देखा ही नही मै तो दौडे जा रहा हूँ वक्त का रहगीर बन हर कदम आलम मुसल्लम मैने देखा ही नही आलम मुसल्लम= सकल जगत ************************************** उसको... न देखा और दिखलाया जा सके उसके ठिकाने कितने?... ना  गिना जा सके जो दिख सके उसी को गहरी नज़र से देख शायद, वहीं से उस्से कुई बात बन सके ************************************* - अरुण

दो रुबाई आज के लिए

कहते हैं- लफ़्ज़ों में कोई ज्ञान नही है सुना है कि.... रूहे आलम के सामने देह का कोई मान नही है पर ख़्याल रहे कि धरती नही होती तो आसमां नही दिखता इस पूरी हक़ीक़त का हमें ध्यान नही है ****************************************** सब जिंदगी और मौत के दरमियाँ उलझे शामे ग़म को सुनहरे अरमां उलझे लाज़मी गर उलझना.. बार बा उलझो उलझो ऐसे कि परिंदों से आसमां उलझे ************************************************* - अरुण

तीन रुबाई आज के लिए

पत्तों को पेड़ का तो कोई पता नही लहरों को समंदर का कोई पता नही पानी में बुलबुलों को हमने दिया वजूद पानी को बुलबुलों का कोई पता नही ************************************** जिसमें यह वक़्त गुज़रता... ऐसी उलझन जिससे दिल बैठ ही जाता.... ऐसी उलझन उलझने लाख...उलझने ही जिंदगी का सबब जो स्वयं सुलझा हुआ, उसको ना कोई उलझन ****************************************** जाननेवाले ने नही जाना... 'जानना' क्या है? जाना है सभी, तो फिर जानना क्या है? जानना तो यहाँ कुछ भी नही.... यारों ! 'जाननेवाला' ही...न हो, तो जानना क्या है? *************************************** - अरुण