आम तौर पर एक बात देखने को मिलती है . देखा जाता है कि एक आदमी सामनेवाले अपने किसी मित्र या परिचित को कोई कूट प्रश्न या पहेली हल करने को देता है, फिर यह देखने मे रस लेता है कि कैसे वह उसे हल नहीं कर पा रहा या उसे कितनी माथापच्ची करनी पड़ रही है. मित्र को पहेली का हल मिलने जा रहा है, अगर ऐसा दिख जाए, तो प्रश्नकर्ता तुरंत हस्तक्षेप कर उसे रोकते हुए, खुद ही प्रश्न का हल बता देता है. अगर हल ढूँढता हुआ मित्र हल न ढूँढ पाए तो कितना ही अच्छा हो, ऐसा सोचकर वह मन ही मन खुश होता दिखता है. कूट - प्रश्न कर्ताओं की यह सहज मानसिकता कई अन्य प्रसंगों एवं ढंगों में देखने को मिलती है, जैसे महिमामंडित शब्दों में श्रोताओं को उलझाकर अपने प्रवचन को दैवी चोला पहनानेवाले बाबागण या बड़ी बड़ी बयानबाजी कर लोगों को उकसानेवाले राजनीतिक नेता या धर्मग्रंथों का प्रतिपादन कर लोगों के मन में अपनी महत्ता स्थापित करनेवाले लोग. ऐसे ‘ महत्वधारी ’ लोग नहीं चाहते कि लोग या आम आदमी अपने प्रश्न स्वयं हल करें. लोगों को पर-निर्भर बनाने में उन्हें रस मिलता है. प्रश्न न भी हों तो वे नये कूट प्रश्न गढ़कर लोगों में फैला ...