यहाँ अपना तो कुछ भी नही..

बालक- मन की कोरी स्लेट पर
लिखा जाता है वही सब
जो समाज के मन-पटल पर अंकित हो
बालक बड़ा होता जाता है
इस भावना के साथ कि
जो कुछ भी उसके मस्तिष्क में है
वह सब उसकी स्वयं की उपलब्धि है
समाज के छोर से बह कर बालक के
मस्तिष्क में संचित होंने वाले ज्ञान से बालक
अपना तादात्म जोड़ देता है
ठीक उसी तरह जिस तरह
दुकान में रखी वस्तु जब अपने घर पहुंचती है
तब वह अपनी बन जाती है
यहाँ अपना तो कुछ भी नही
.................................... अरुण

Comments

यहाँ अपना कुछ भी नहीं ...
माल असबाब नियते तक तो मान लिया मगर विचार तो अपने होते हैं ...महज अपने ...
नहीं ...??

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