श्री रमण महर्षि – ४२ दोहे



The Collected Works of Sri Ramana Maharshi – इस पुस्तक के Chapter 2- Who am I?- के पठन और चिंतन के उपरांत, मैंने ४२ दोहे रचे हैं. इन्हें पढ़कर, कृपया, इनपर अपने विचार व्यक्त करें.

मै कौन हूँ ?- एक प्रश्नात्मक खोज

स्वयं शुद्ध आनंद है स्वयं प्रेममय होत
अहोभाव अनुग्रह लिए प्रेम स्वयं में होत

इसीलिए इस स्वयं का जानो असली रूप
ऊपर ‘मै’ तम-रोशनी, भीतर ‘स्व’ की धूप

निकलो कल्प-उजाल से,   देखो कल्प- मशाल
यह ‘मै’ कल्प- मशाल है, यह मन कल्प-उजाल ३

यही सरल साधन हुआ देखो मै का रूप
खोती कल्प-मशाल तब दिखे स्वयं की धूप ४

खोज प्रश्न ‘मै कौन हूँ’ गहरे उतरत जाय
ठोस किसी निष्कर्ष पर कदम न ठहरत पाय ५

हर संभव उत्तर विफल, ‘मै’ क्या ? ना बतलाय   
नेति नेति का मार्ग ही,  ‘स्व’ का बोध जगाय  

हुआ न तन मन प्राण ‘स्व’, हुआ न ज्ञन, ना कर्म
‘स्व’ इन सब के पार है, यही खोज का मर्म 

इसी मर्म के बोध को, मिले ‘स्वयं’ का रंग  
इसी रंग में दंग है,   सत-चित मयआनंद ८

देखे वह भी दृष्य है, देखे--दिख सब दृष्य
दृष्टा ही दृष्टि स्वयं, जब लोपे सब दृष्य ९

जब तक सांप सुझात है डोरी का क्या ख्याल
डोरी ही दिख्खे जिसे सांप न आवत ख्याल  १०

नश्वर दुनिया सांप है डोरि ईश्वर बोध
ईश्वर का दर्शन खुलत नश्वर होत अबोध ११


शब्दबोल गतभूतियाँ प्रतिमा का संचार
ये प्रतिमाएं मन-गगन विचरत जहाँ विचार १२

नश्वर दुनिया मन-उपज, निद्रा में हद्पार
मन-जग हो या मन-सपन, डोलत सदा विचार  १३

‘स्वयं’ प्रगट जब कल्प में, मन की जागे आग  
कल्प ‘स्वयं’ में लौटते बुझ जाए मन-आग  १४

मन के बाबत खोज जब पैनी होती जाय
जाकर पहुंचे ‘स्वयं’ पर जो आत्मा की छाय १५

विषयवस्तु बिन मन नहीं, मन अति सुक्ष्म सजीव
गुहा सजीव शरीर की,         जिसमें बैठा जीव १६

‘मै’ उडता मन-गगन में,  ले विषयी आकार 
‘मै’ विचार तो प्रथम है, दुय्यम दुजे विचार १७

संबोधन ‘मै’ का प्रथम, ‘तू’ ‘वह’ आये बाद
‘मै’ के बिन होता नहीं, ‘तू’ ‘वह’ से संवाद  १८

खोज प्रश्न ‘मै कौन हूँ’, मन को पूर्ण जलाय 
अगन देत मन काष्ठ को, खुद उसमे जल जाय १९

जो उठते उन ख्याल पर दुर्बल ध्यान धरो
किसके हैं ये ख्याल सब?, इसपर मनन करो २०

बहना धर्म विचार का, तरना उसपर व्यर्थ
स्रोत ह्रदय के मूल में वहीँ जागना सार्थ  २१

जीव गुजरता मनस से, नाम रूप गुंजात
जीव लौटता दृदय में नाम रूप थम जात २२

‘मै’ जब कर्ता ना हुआ, कर्म सधे बिनबाध
तभी दिखे प्रभु खेलता, लीला अगम अगाध २३

‘स्व’ के चक्षु ज्ञानमय, ‘स्व’-स्वरूप दिखलात
दुजा न कुछ भी कर सके, ‘स्व’ की यह सौगात २४

श्वाँस नियंत्रण दे सके मन को लघु विश्राम
मन का थमना आपमें श्वाँस संतुलन काम २५

विषय भास संचारता अविरत मनस चलाय
थमती है वृत्ति, जभी, ध्यान ‘स्वयं’ पर आय २६  

मन तो है मन के विषय, भले बुरे कछु नाहि
सम्यक बन कर देखना, मूल्य न देना ताहि  २७   

मन के उठते ही नजर, गर जाती हो दौड़
मन-विचार थम जात है, थामे अन्तर-होड़ २८    

सत–प्रांगण पर छा रही, ‘स्व’ की अविरत धूप
जीव, जगत, परमात्मा, ‘स्व’ बिम्बन प्रतिरूप  २९    

बिन हेतु, बिन कामना सूर्य चन्द्र हैं व्यस्त
सब अपने से चल रहे, प्रभु-लीला अति-मस्त ३०   

‘स्व’ पर जो ठहरा हुआ प्रभु भक्ती तल्लीन
अपना बोझा छोड़ता, प्रभु- सत्ता आधीन ३१

बैठे प्रभु की गोद में फिकर न कोई होय
‘मै’ ‘मन’ ‘चिंतन’ का वजन, प्रभु में जाकर खोय ३२   

मनस डोर से अनबधा, पौडे ‘स्व’ में मुक्त
गोता खा तल से चुने, मोती, ‘स्व’ का भक्त  ३३    

गुरु देगा उपदेशना मार्ग कहाँ कुई जात
खुद का दर्शन खुद करो खुद में बोध जगात ३४  

मन करता विश्लेषणा, खुद के विषय पसार
‘स्व’ की यात्रा जो चुने. व्यर्थ उसे मन-सार  ३५

जागे को सच्चा जगत, स्वप्नी को जस स्वप्न
नाम, रूप और चिन्तना, ढके ‘स्वयं’ का रत्न ३६

धर पुस्तक के आत्म को, करो स्वयं की खोज
शब्दों में उलझो नहीं, वे सब केवल बोझ  ३७

विषयों में आनन्द ना, विषय ख़ुशी के चित्र
‘स्व’ संग ही आनन्द है, दोनों ही सन्मित्र ३८

दृष्टि ही केवल बचे विषय हेतु सब खोय
मन-परदे के पार ही, अंतर्दृष्टि होय   ३९

अंतर्दृष्टि को दिखे,     ‘स्व’ का अंतर मात्र
ना वस्तू, ना कछु विषय, ना इच्छा का सूत्र ४०  

आत्म-खोज खुद में डुबे, खोजत ‘स्व’ का तल
ब्रह्म-समाधी फैलती,  कर ‘स्व’ को ओझल ४१

आत्म-खोज दिखलात है, ‘मै’ का बंधन पूर्ण
शुद्धरूप में चेतना,       छूती तब सम्पूर्ण ४२
-अरुण


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