अपनी भीतरी परछाईंयों में लिपटा

अपनी भीतरी परछाईंयों में लिपटा
छटपटाता हुआ... दौड़ रहा है आदमी दर दर
आज़ादी की भीख मांगते उनसे
जो उपजे हैं उसके ही दिमाग़ी आंगन में...
उन्हे तरह तरह के नामों से पुकारते हुए...
कभी अल्लाह, कभी राम, कभी यशु
कभी मार्क्स तो कभी माओ...
ऐसा विवश, विकल, निद्रस्थ
त्रस्त है अपने अंधत्व से और..
अपने उतने ही अंधे रहनुमाओं से
आख़िर क्या करे बेचारा?
जब तक वह  भीख मांगते, इच्छाओं की दौड़ लगाते
थककर रुक नही जाता... यही सिलसिला
सदियों से चलता रहा हैै.. और चलता रहेगा
काश ! वह  सारी कोशिशों से थककर रुक जाए ...
तो शायद देख पाए कि
वह स्वयं रौशनी को रोके खड़ा है...
- अरुण

Comments

Rohitas Ghorela said…
उम्दा रचना

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