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Showing posts from August, 2010

शब्दों की राजनीति

दो भिन्न व्यक्ति ‘ राम ’ शब्द का उच्चार करतें है उच्चार समान होते हुए भी जरूरी नही कि उसका आशय एक ही हो एक के राम में पूरा अखंड, असीम विश्वरूप है तो दूसरे का ‘ राम ’ दशरथ-पुत्र राम की बात करता है शब्दों को लेकर बहस छेड़ना आसान है राजनीतिज्ञों को ऐसी बहसें अच्छी लगती हैं ........................................................... अरुण

ध्यान वैज्ञानिक है फिर भी विज्ञान-स्वीकृत नही

मन को मन से समझने का काम मनोवैज्ञानिक ढंग से हो जाता है इसमें वैज्ञानिक पद्धति का ही उपयोग है परन्तु ‘ तन-मन-अस्तित्व ’ को सकल रूप में समझने के लिए ध्यान का उपयोग होता है जिसमें वस्तु-निष्ठता और व्यक्तिनिष्टता दोनों का ही समावेश होते हुए भी इसे अभीतक विज्ञान नही माना गया विज्ञान - सार्वजनिक वस्तुनिष्ठ निरिक्षण है और ध्यान - व्यक्तिगत वस्तुनिष्ठ-निरिक्षण चूँकि यह व्यक्तिगत है, विज्ञान इसे अपनी श्रेणी में रखने को तैयार नही ............................................. अरुण

मनोवैज्ञानिक गुलामी

अगर रेल के डिब्बे में सीट रिझर्व हो तो उस सीट पर दूसरे को बैठा देख अचानक गुस्सा आ जाता है कारण क्या है? विश्लेषण दर्शाता है कि - ‘ यह चीज मेरी है ’ ऐसा आशय जब मन में उभरता है तब दो में से कोई एक भाव सक्रीय हो जाता है एक यह कि यह चीज मेरे उपयोग के लिए उपलब्ध हुई है या दूसरा यह कि इस चीज पर मेरी अपनी मालकी है पहला भाव तथ्य का परिचायक है तो दूसरा भाव हमारी मनोवैज्ञानिक गुलामी का .......................................................... अरुण

अनेकता में एकता

अनेकता में एकता इस नारे को भारत में बड़ा सन्मान है परन्तु ऐसी एकता तभी संभव है जब सभी एक दूसरे को समझते हुए एक साथ रहते हों एक दूसरे को अड़चन समझकर एक साथ रहना एकता नही ला पाता ............................... अरुण

चुनौती से भिडना-भागना या गुजर जाना

जीवन में हर पल की चुनौती सामने आते ही मन या तो उससे भिड़ता है या उससे भागने का रास्ता खोज लेता है दोनों ही स्थितियों में मन चुनौती से मुक्त नही है प्रायः हम सभी जीवन चुनौतियों से लढकर या भागकर बीतातें हैं जो तन-मन-दृदय से जागा हो चुनौती उससे या वह चुनौती से होकर गुजर जाता है चित्त पर चुनौती की कोई छाप नही छूटती ...................................... अरुण

इच्छा यानी मानसिक उपभोग

किसी भी वस्तु या अनुभव का मानसिक उपभोग शुरू होते ही हम कहते है हमें वस्तु की इच्छा हो रही है उदाहरण के लिए जलेबी खाने की इच्छा होने का अर्थ है हमने मन से जलेबी खाना शुरू कर दिया है मानसिक उपभोग को ही इच्छा कहा जाता है .................................. अरुण

शब्दों की गाड़ी हमेशा ही खाली

शब्दों की गाड़ी हमेशा ही खाली न इसपर कोई अर्थ लदता है और न ही उतरता है फिर भी इसपर लादने-उतारने का काम जारी है इसपर अर्थ लादने वाले ने क्या अर्थ लादा यह लादनेवाला ही जाने अर्थ उतारने वाले ने क्या उतारा यह उतारने वाला ही जाने फिर भी व्यावहारिक जगत में यह खाली गाड़ी अर्थ-वहन का काम करती रहती है शब्दों से संवाद तो हो जाते हैं पर संमिलन नही .................................. अरुण

पहले चखें, फिर पढ़ें

बच्चे को पहले अन्न पानी जैसी चीजें चखने को मिलती हैं और बादमें वह उनके बाबत कुछ सुनता है, बाद में, वह उसके ज्ञान का विषय बनती हैं यानी पहले प्रत्यक्ष अनुभव और बाद में उसपर चर्चा हो तो चर्चा सार्थक होगी धर्म की ‘ चर्चाओं ’ को ही चखने वाले पंडित बन सकते हैं,, दार्शनिक कहला सकते हैं जो जीवन में अपने हर अनुभव को प्रत्यक्ष अपने अवधान से चख रहा हो वह दार्शनिक न भी हो तो कोई बात नही क्योंकि वह सही माने में धार्मिक है ................................................. अरुण

प्यासे को कतरा पानी भी ......

अगर खोज गहरी हो तो एक ही चौपाई या दोहा काफी है सबकुछ समझाने के लिए, नही तो, सारा ग्रन्थ भी किसी काम का नही तप्सील पे तप्सील की प्यासे को क्या गरज प्यासे को कतरा पानी भी दरिया सा लग रहा. ......................................................... अरुण

द्विज यानी वह जो दूसरा (नया) जन्म लेता हो

माँ -बाप बच्चों को जन्म तो देते है परन्तु अपनी ही (पुरानी) संस्कृति, मान्यता, विश्वास, पक्ष-विपक्ष विचार, दृष्टिकोण ...... हस्तांतरित कर अनजाने ही, वे बच्चे को नए जीवन (जन्म) से वंचित ही रखते हैं माँ-बाप से पाया जन्म नया न बन पाया क्योंकि बच्चा पुराने को ही जीता रहा पुराने से, या यूँ कहें, हस्तांतरित बोझ से जो मुक्त हुआ उसी को द्विज कहा गया द्विज यानी वह जो दूसरा (नया) जन्म लेता हो ............................................. अरुण

न प्रारंभ और न अंत

अस्तित्व में किसी चीज का न प्रारंभ है और न अंत हर चीज अपना रूप बदलते हुए प्रगट और फिर लुप्त होती है ................................... अरुण

जनता ठंडी, नेता उबलते हुए

उबलने के लिए जितना जरुरी होता है उतना गरम होने से पहले ही अगर पानी उबलने लगे तो बात अटपटी सी लगेगी संसद , विधानसभाओं और सड़कों पर ऐसा अटपटा उबाल रोज ही देखने, सुनने और पढ़ने को मिल रहा है ................................... अरुण

छिटक कर सागर से ......

छिटक कर सागर से मछली तट पर आ गिरी छटपटाती है लौट जाने को धीरे धीरे ... एक नही, दो नही, कई छटपटाती मछलियाँ मिलती हैं बनाती हैं - समाज समाज- जो बुनता है अपना कल्पना-जाल जिसके नीचे छुपकर मछलियाँ दबा देती हैं अपनी छटपटाहट ................................. अरुण

प्रायः हम सभी अस्वस्थ हैं

‘ स्वस्थ ’ शब्द का अर्थ है वह जो अपनी जगह पर है अस्तित्वमें मनुष्य हर पल वर्तमान में ही बना हुआ है परन्तु सांसारिकता में उलझा मनुष्य-चित्त (प्रायः हम सभी) हर पल वर्तमान से दूर किसी भविष्य या भूत में टहलता रहता है यानी वह अपनी जगह पर नही है ‘ स्वस्थ ’ शब्द के मूल आशय के हिसाब से, बिरले ही होंगे जो स्वस्थ हैं .................................... अरुण

मन है ....

मन है मालकी मन है तुलना मन है कुछ पाने और बनने को तडपना हर क्षण या हर पल का नयापन खो देना और ढल जाना किसी चुने विचार में किसी चयन या विकल्प में सभी सामन्यताओं को भुलाकर कुछ विशेष बनने की ललक में .......................................... अरुण

भारत को वाद नही, निर्विवाद की जरूरत है

आजाद भारत को जरूरत है सिर्फ - राष्ट्र का हित चाहने वालों की किसीपर भी अन्याय न हो यह सोचनेवालों की पूरे भारत को भारत समझनेवालों की सभी धर्म केवल ऊपरी चोलें हैं ऐसा देखने समझनेवालों की भेद हो सकतें है पर मनो में भेदभाव न हों इस आशय से जीनेवालों की अब आजाद भारत को मुक्ति चाहिए सभी ‘ वादी ’ यों से राष्ट्रवादियों से, साम्यवादीयों से, अलगाववादियों से, धर्मवादियों से बहुजन – अल्पजन वादियों से सभी ‘ वादी ’ आंशिक सोच के शिकार हैं हठ और जिद से बीमार है .......................................... अरुण

अपना बंधन चुनने की आजादी

यह मेरी अपनी राय है कोई सिद्धांत नही, गलत भी हो सकती है भारत में प्रायः व्यक्तिगत स्तर पर बहुतेरे राजनीतिज्ञ समझदार और सुलझे हुए हैं पर पार्टीका झंडा उठाने के बाद पार्टी की आवाज में आवाज मिलाते हुए कुछ भी बोलने और करने को तैयार हो जातें हैं आजाद भारत के राजनीतिज्ञ आजाद नही हैं हाँ, अपना बंधन चुनने की आजादी तो है उनके पास ................................... अरुण

सत्य नही पर सत्य-सूचक

कला शब्द को परिभाषित करनेवाले कहते हैं कला एक ऐसा झूठ है जो सत्य को अभिव्यक्त करता है यही बात सारे पुराणों पे भी लागू होती है पुराणों में कही गई कहानियाँ सत्य को समझानेवाले दृष्टांतों जैसी हैं सत्य नही, सत्य-सूचक होतीं हैं ........................................... अरुण

चार तरह के लोग – चतुर, दुर्बल, विवेकी एवं जागे हुए

मन से ऊठे संघर्षों और विकारों से निपटनेवाले लोग व्यवहार-चतुर माने जातें है जो ठीक से निपट नहीं पाते उन्हें भावनिक एवं दुर्बल समझा जाता है कुछ लोग अपने विवेक के आधीन शांत एवं स्थिर रहतें हैं तो कुछ ही ऐसे बिरले मिलेंगे जिनके मन से संघर्ष और विकार उठने से पहले ही ओझल हो जाते हों .............................. ................. अरुण

मानवता को भी है अहंकार

नवजात शिशु कों समाजिक बनाने की प्रक्रिया के शुरू होते ही उसमें अपना स्वतन्त्र अस्तित्व होंने का भाव फलने लगता है उसका अहंकार ढलने लगता है परन्तु सारी मानवता का भी अपना एक अहंकार है अस्तित्व में मानव स्वयं कों विशेष मानता है क्या वह विशेष है? ....................................... अरुण

चार तरह के लोग – चतुर, दुर्बल, विवेकी एवं जागे हुए

मन से ऊठे संघर्षों और विकारों से निपटनेवाले लोग व्यवहार-चतुर माने जातें है जो ठीक से निपट नहीं पाते उन्हें भावनिक एवं दुर्बल समझा जाता है कुछ लोग अपने विवेक के आधीन शांत एवं स्थिर रहतें हैं तो कुछ ही ऐसे बिरले मिलेंगे जिनके मन से संघर्ष और विकार उठने से पहले ही ओझल हो जाते हों ............................................... अरुण

सम्पूर्णनिष्ठता

विज्ञान वस्तुनिष्ठ है और कला है व्यक्तिनिष्ठ रहस्य को जाननेवाला क्षण क्षण सम्पूर्णनिष्ठ है जगत में अपने को देखते समय ही अपने में जगत को देखता रहता है दृष्टि की व्यापकता ही उसका स्वभाव है ------ कोई देखे वस्तु को कोई मन की छाय अपने को देखत रहो देखत जगत सराय ...................................... अरुण

कठनाई राजनीतिज्ञों की

तथाकथित राजनीतिज्ञों की सबसे बड़ी कठनाई यही है कि उनकी सारी प्रेरणा स्वार्थ से भरी होते हुए भी उन्हें लोक-कल्याण में रूचि दिखानी पड़ती है लोगोंकी निगाह में अपनी अच्छी प्रतिमा बनाए रखने के लिए खुद से ही झगडते रहना पडता है ........................................... अरुण

दरवाजा अनुसंधान का

अनुसंधान के दरवाजे बंद रखनेवाले विश्वास जीवन को आगे बढनें से रोक देतें हैं अनुसंधान में काम आतें हैं सहज स्वाभाविक संदेह जो दिला सकतें है सत्य का आनंद केवल सच्चाई से भागनेवालों को ही चाहिए विश्वास की गुफाओं में छुपने की जगह ................................. अरुण

समुद्र की लहरों को अहंकार....

समुद्र की लहरों को अगर ख्याल हो जाए अपने लहर होने का तो वे समुद्र के बहाव पर अपना जोर आजमाएंगी बहाव को अपने मनचाहे ढंग से मोडने की कोशिश करेंगी अपना अस्तिव बचाने के लिए संगठित होंगी किसी भी संगठन में होता है वही बात उनमें भी होगी वे भी आपस में लढेंगीं अपने गुट बनाएंगी .................................. अरुण

सत्य – व्यावहारिक और पारमार्थिक

आकाश में विचरनेवाला पक्षी धरती और आकाश के भेद को सही सही देख लेता है परन्तु वैश्विक अवकाश में विचरनेवाली प्रज्ञां के लिए आकाश और धरती जैसी संज्ञाओं का कोई अस्तित्व नही बचता -------- व्यावहारिक सत्य से असत्य भिन्न दिखाई देता है परन्तु पारमार्थिक सत्य के अवतरण से सत्य-असत्य के आपसी भेद का कोई औचित्य नही बचता ...................................... अरुण

अँधेरा ढूँढ रहा है उजाला ......

सत्य कठिन है क्योंकि असत्य प्रिय है असत्य प्रिय है क्योंकि सत्य कटु है सत्य कटु है क्योंकि वह असत्य को काटता है असत्य कट नही पाता क्योंकि वह सत्य के सन्मुख ठहरता ही नही असत्य पाना चाहता है सत्य को पर बिना उसका सामना किए मानो अँधेरा ढूँढ रहा हो उजाला उससे बचकर, उससे भागकर उससे डरकर ......................................... अरुण

प्रतिप्रकाश

संघर्ष प्रकाश और अँधेरे के बीच नही जब प्रकाश हो तब अँधेरा बचता ही नही तो फिर संघर्ष का सवाल कहाँ संघर्ष अँधेरा और प्रतिप्रकाश के बीच है सारा ज्ञानात्मक बोध प्रतिप्रकाश है और सारा ध्यानात्मक बोध है स्वयं प्रकाश ..................................................... अरुण

धीरे धीरे कुछ नही ...

धीरे धीरे कुछ नही यहाँ अचानक जाग या तो मन में चेतना या तो नींद खराब ---------- शब्दों को नही अर्थ कछु जो जोड़ा वह अर्थ शब्द, भाव संकेतमय ध्वनि केवल, सब व्यर्थ ---------- एक सकल को बूझता मुख से कहता राम दुजा बैठ मंदिर जपे राम राम श्रीराम ......................................... अरुण

नंगा भूले नंगपन

माया में लिपटे हुए सत् तो जात बिसार नंगा भूले नंगपन सोचत वस्त्र हजार .......................... अरुण