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Showing posts from July, 2010

दृष्टि है, ध्यान नही

आँखें खुली हैं पर सामने की वस्तु दिखाई नहीं देती क्योंकि दृष्टि तो है पर ध्यान बटा है किसी विचार ,तन्द्रा या स्वप्न में सत्य भीतर, बाहर, चहुँओर व्याप्त है फिर भी समझ में नही उतरता क्योंकि समझ उलझी है भय, चिंता, वासना, आकांक्षा और कई भले बुरे विषयों में ...................................... अरुण

मूर्ख दो प्रकार के

मूर्ख दो प्रकार के एक वे जो सयानेपन के अभाव में मूर्ख हैं दूसरे वे जो सयानेपन के भाव में मूर्ख हैं .................................. अरुण

साँस है जीवन, मन है मृत्यु

साँस पर जागा चित्त न खोता है आस में और न इतिहास में साँस पर सोया चित्त बह जाता है मन की भड़ास में ............................... अरुण

सबसे कम आत्मनिर्भर है आदमी

सबसे कम आत्मनिर्भर है आदमी उसका समाज पराधीन लोगों का आत्मनिर्भर जमावड़ा है हर चीज,उपाय,ज्ञान, कौशल, के लिए वह दूसरों की तरफ ताकता है दूसरों की कल्पनाओं,उपदेशों,बताए सिद्धांतों को से जुड जाने को ही अपनी उपलब्धि मानता है पिछलों से लेता है, अगलों को देता है जितने समय उसके पास हो अपना समझ लेता है अपनी समस्याओं को, कष्टों को, विवंचनाओं को बिना ठीक सी देखे या परखे रचे रचाए हल या उपायों की खोज में वह दर दर भीख मांगता है .............................. ...................... अरुण

शून्यत्व दिखे तो धार्मिक.......

सांसारिकता में उलझा जीवन शून्य था, है और रहेगा जीवनभर चलते जोड़-घटानों के बाद भी शून्य ही है जिसे यह शून्यत्व, क्षण-प्रतिक्षण दिख रहा है वह धार्मिक है .................................. अरुण

दवा का सेवन नही केवल पूजन

मूढता में निद्रस्थ को जगाने हेतु पहले से जागे लोगों ने आवाज दी, उच्चार किया पर निद्रस्थ जागा नहीं हाँ, इतना ही हुआ कि निद्रा में ही वह उस आवाज या उच्चार की प्रतिमाओं को पूजने बैठ गया .............................. ......... अरुण

दवा का सेवन नही केवल पूजन

मूढता में निद्रस्थ को जगाने हेतु पहले से जागे लोगों ने आवाज दी, उच्चार किया पर निद्रस्थ जागा नहीं हाँ, इतना ही हुआ कि निद्रा में ही वह उस आवाज या उच्चार की प्रतिमाओं को पूजने बैठ गया ....................................... अरुण

अरुणोदय से रात तक - जीवन के सभी रंग

गगन में अरुणोदय संकेत अभी मै जगत-रहित,पर चेत हुआ अब अरुणोदय नभ में लो आया जन्म लिए जग में तो नभ में देख उषा आयी हंसी अब मुख से लहराई प्रभा का आया शुभ्र प्रभात बनकर अब मै शिशु से बाल चला था रवि सह तीव्र प्रकाश न था अब आयु वृद्धि अवकाश हुआ अब मध्य दिवस का काल कर्म अब यौवन का अभिमान मिटा दिन संध्या तब आयी कलि अब तन की मुरझाई रात ने दिन को डाला त्याज देह पर कागों का था राज ..................................... अरुण

आध्यात्मिक प्रवचन किसे कहें ?

यह प्रवचन कई तत्वों का केवल जोड़ नहीं उनका संगम है प्रवचन केवल जानकारी नहीं केवल प्रेरणा नहीं केवल जीवन के प्रति सोच-समझ देना भी नहीं प्रवचन शब्दों और वचनों का एक ऐसा सहज सरल प्रवाह है जिसके चेतन स्पर्श से सुननेवाला अपनी बाह्य स्थित्ति से हटकर अपने अन्तस्थ से जुड जाए ........................................ अरुण

जो बोले सुनता वही ....

संवाद के लिए कम से कम दो चाहिए दो छोर, दो व्यक्ति, दो समूह मस्तिष्क के भीतर एक भी नहीं फिर भी संवाद की एक अटूट धार बहे जा रही है जो बोलता है वही सुनता है वही जबाब भी देता है और वही फिर सुनकर आगे ...... मस्तिष्क के भीतर केवल ख्वाब उसके भीतर हैं कई ख्वाब एक दूसरे से बोलते एक दूसरे को देखते इतना ही नहीं भीतर के ये ख्वाबी बादल ढक देते हैं बाहरी जगत को भी ....................................... अरुण

फिर मन से मौन की ओर

आदमी मौन लेकर पैदा होता है और अनायास ही समाज का संपर्क होते ही उसमें मन फल उठता है पर मन से मौन प्रयास करने पर भी फल नहीं पाता जो चीज टूट गई वह जुड सकती है पर अटूट नहीं हो सकती द्वैत से अद्वैत फल नहीं सकता इस बात का जीवंत बोध ही कि द्वैत शुद्ध भ्रान्ति है अद्वैत है .................................... अरुण

भागना भी है और ठहराना भी

या तो भागते रहो या ठहर जाओ दोनों बातें एक ही वक्त नहीं हो सकतीं हाँ एक काल्पनिक उपाय है भागते हुए ही कल्पना करो कि ठहरे हुए हो आदमी धर्म को अपने जीवन में कुछ इसीतरह अपना रहा है ............................................ अरुण

तर्क और समझ का रिश्ता

समझहीन तर्क यानी अज्ञान तर्कहीन समझ यानी ज्ञान तर्कपूर्ण समझ यानी विज्ञानं समझपूर्ण तर्क यानी प्रज्ञान प्रज्ञान का अर्थ बोध से है तर्क है दिमागी गणित और समझ है वास्तविकता का दर्शन ................................... अरुण

ध्यान और ज्ञान

अस्तित्व में पशु-पक्षियों द्वारा जीवन सुरक्षा के लिए उपयोग में आता है उनका समग्र ध्यान और थोडा थोडा कामचलाऊ ज्ञान पर आदमी जी रहा है अपने संचित ज्ञान से ध्यान का थोडा थोडा कामचलाऊ उपयोग करते हुए थोड़ी अतिशयोक्ति की छूट हो तो कहना पड़ेगा - पशु-पक्षियों के ध्यान में ही उनका ज्ञान है और आदमी के ज्ञान में उसका ध्यान .............................. अरुण

कबीर रहस्यवादी नहीं हैं

सीधा सादा जगत है, सीधे सीधे देख तिरछी को तिरछा दिखे, दिखती तिरछी रेख सीधा सादा आदमी अपनी सीधी नजर से जगत को सीधे सीधे देखता है पर उसकी बानी रहस्य मालूम पड़ती है उनको जो जगत को सीधे सीधे देख नहीं सकते क्योंकि उनकी नजर तिरछी है संस्कारित है कबीर रहस्यवादी नहीं हैं न उनकी बानी किसी रहस्य को दर्शा रही है हम उन्हें समझ नहीं पा रहे क्योंकि नजर हमारी सीधी नहीं है. ........................................... अरुण

कहानी की किताब में कहानी नहीं बसती

कहानी की किताब में छपे शब्द/वाक्य पढते ही सारी कहानी समझ आ जाती है परन्तु किताब कों कितना ही उलटो,पलटो, फाडो, जलाओ उसमें से न कहानी गिरेगी और न कहानी जलेगी शरीर के मस्तिष्क यन्त्र में भी कुछ ऐसा ही है मस्तिष्क देता है विचार, प्रतिमाएं, स्वप्न, आशय पर मस्तिष्क में अगर झांको इसमें कुछ न दिखेगा सिवा मस्तिष्क की बनावट के ......................................... अरुण

इच्छा-वृक्ष

इच्छाएँ अनेक हैं एक दूसरे पर निर्भर एक इच्छा के भीतर से पनपती है दूसरी इच्छा फिर दूसरी से तीसरी ....... जिस तरह वृक्ष में शाखाओं से शाखाएं फूटती है ठीक – उसीतरह इच्छा-वृक्ष के बीज पर ध्यान जाते ही वृक्ष हुआ ‘ न-अस्तित्व ’ इच्छा-वृक्ष की शाखाओं को जानने का काम है मनोविज्ञान का पर बीज देख सकता है केवल आत्म-ज्ञानी ............................... अरुण

क्षण ही जीवन

हर क्षण स्वतन्त्र है न पिछले क्षणों से इसका कोइ जोड़ है और न अगलों से कोई लगाव पर हमारी जिंदगी में ऐसा नहीं क्योंकि यह ‘ हमारी ’ है और इसीलिए यह पिछले क्षणों को दुहराने और अगलों (भविष्य) को साकारने में लगी हुई है यह ‘ हमारी ’ है इसीलिए जिन्दा नहीं है हमेशा गाडी हुई है पिछलों और अगलों में ................................. अरुण

किताबें अनुभव नहीं देतीं

योगी अपने अनुभवों की लिखकर योग पर किताब छापे – यह बात तो समझ में आती है पर उस किताब को पढकर कोई योगाभ्यास करे – ये बात समझ में नहीं आती अनुभवों पर किताब लिखी जाती है पर किताब पढ़ने से अनुभव नहीं होते हाँ, अनुभव की कल्पना की जा सकती है कल्पना सघन हो तो अनुभव की भ्रान्ति भी हो सकती है पर अनुभव नहीं ............................................... अरुण

बंधन कों देख लेना ही है आजादी

बंधन तोडने की प्रक्रिया का नाम आजादी नहीं बंधन को जन्म देनेवाली प्रकिया के प्रति सजग रहना ही आजादी है मतलब - सजगता ही आजादी है आजादी के लिए किसी अलग से की गई कृति की जरूरत नहीं ............................... अरुण

खींचातानी

यह जीवन कई भिन्न परस्पर विरोधी एवं विभिन्न स्तरीय इच्छाओं का आपसी संघर्ष है एक ही मन में, एक ही समय में है पाप की इच्छा भी है और पुण्य की वासना भी युद्ध की जरूरत भी और शांति की प्रेरणा भी मित्रों से दुश्मनी और शत्रु से समझौता एक ही समय में - बाप का बोझ भी है और पुत्र से मिल रही लताड भी .......... एक ही समय कई दिशाओं में खींचातानी और फलतः मानसिक तनाव .................................... अरुण

उगता- फलता- फला देखा, बीज न देखा

अंकुर फूटा, देख लिया पौधा बना, देख लिया वृक्ष लहराता, देख लिया लेकिन जमीन में दबे जिस बीज से यह सब घटा उसके बाबत मै बेखबर रहा और बेखबर हूँ..... अब भी भीतर कई जहरीले बीज (क्रोध, भय, लालसा जैसे) जो मुझसे फूटते रहतें है, दबे पड़े हैं मगर मै बेखबर हूँ उनके बाबत .............................. अरुण

मन है एक आड

प्रकाश के आड़े आने वाली चीज धरती पर अपनी परछाई बनी देखती है वह चीज प्रकाश के रास्ते से हट जाए तो उसकी परछाई लुप्त हो जाती है अपनी जगह पर खड़े खड़े वह चीज अपनी परछाई को हटा नहीं सकती, मिटा नहीं सकती न ही उसे किसी भी तरह गायब कर सकती है जीवन की सीधी अनुभूति के आड़े खड़ा मनुष्य का मन जीवन को अपनी ही परछाई से ढक देता है जबतक मन निर्मन न हो जाए जीवन प्रकाशमान न हो सकेगा .................................................. अरुण

दिखता तो है पर धुंधला धुंधला

मिचकाती आँखों से जिंदगी का सारा तमाशा दिखता तो है पर धुंधला धुंधला बात समझ में आती तो है पर थोड़ी थोड़ी इन धुंधली धुंधली आधी-समझी बातों से छुटकारा नहीं तबतक जबतक मिचकाती आँखों और उनमें समाये सारे तमाशे को अस्तित्व की खुली आँख देख नहीं लेती एक ही पल में अचानक ......................................................... अरुण

चलती को गाड़ी कहे.......

अस्तित्व प्रवाही रहा है- बहता रहा है , बह रहा है और रहेगा. वह लगातार क्षण प्रति क्षण बदल रहा है. कहीं भी कभी भी ठहरा हुआ नही है. जिसे हम देह कहते हैं या जिसे हम पदार्थ कहतें हैं , वह भी पल पल सुप्त या स्पष्ट रूप से बदलता जान पड़ता है. इस क्षण जो चीज जैसी है उस क्षण वैसी नही रहती. अभी जो जिया अगले क्षण मरा एक नया जन्म लेने के लिए - जन्म-मृत्यु एक दूसरे में मिले हुए हैं. एक दूसरे में रूपांतरित हो रहे है , इस ढंग के रूपांतरण की निष्पत्ति है - निरंतर चला आता हमारा यह जीवन प्रवाह. प्रवाह में स्थिरता की कल्पना भी नही की जा सकती फिर भी आदमी की उत्क्रांति-यात्रा स्थिरता की कल्पना इजाद करती रही. उसने , ' चलती ' में ' गाड़ी ' ( गाड़ी हुई ) बनना चाहा. जो नही हो सकता उत्क्रांति ने वह करना चाहा. ऐसी चाह (या Natural selection) मनुष्य के लम्बे उत्क्रांति क्रम में क्यों पैदा हुई ये कहना कठिन है. परन्तु अपने प्रति दिन के जीवन को निहारने पर एक बात स्पष्ट होती है. आदमी जिन बातों को स्थिर कहता है वे अस्तित्व की नजर में स्थिर नही है. फिर भी नित्य के व्यवहार में ...

सांसारिक- इच्छाओं के पीछे की बाध्यता

मनुष्य कुदरत से न अलग है और न ही अलग हो पाता है फिर भी उत्क्रांति में हुई भूल के कारण , वह समाज-मग्न होते ही उसमें कुदरत से विभक्त होने का भाव-भ्रम खिल उठता है यही भाव- भ्रम उसमें कर्ताभाव के साथ ही संकुचन की पीड़ा भी जगाता है अनायास ही अपना संकुचन दूर करने के लिए वह फैलकर एवं पसरकर कुदरत से पुनः एक रूप हो जाना चाहे, फिर सकल एवं असीम बन जाना चाहे, यह सहज- स्वाभाविक है उसकी सभी सांसारिक इच्छाएँ जैसे धन, नाम, सत्ता, प्रतिष्ठा, फैलने और पसरने की सहज-प्रेरणा की ही परिचायक हैं ....................................... अरुण

अज्ञेय

अज्ञेय का मतलब – रहस्य नहीं अज्ञेय का मतलब – अदभुत नहीं अज्ञेय का मतलब – असाधारण नहीं अज्ञेय यानी कोई दिव्य-भव्य नहीं अज्ञेय यानी वह जिसे मनुष्य का ज्ञान-यन्त्र यानी ‘ मन-बुद्धि-स्मृति-तर्क- विज्ञानं ’ जानने में असमर्थ है अज्ञेय यानी सकल-अस्तित्व जिसे अस्तित्व ही जान सकता है, ज्ञान-यन्त्र से जाना ज्ञान जो ‘ ना-अस्तित्व ’ है अस्तित्व को छू नहीं पाता .............................. ...................... अरुण

अंतिम सत्य तो एक ही.....

दौड़ती रेलगाड़ी का एक डिब्बा भीतर यात्री चल फिर रहे हैं डिब्बे के एक छोर से दूसरे छोर के बीच दोनों तरफ की दीवारों के बीच उनके चलने-फिरने में भी कोई न कोई गति लगी हुई है, कोई न कोई दिशा का भास है कहने का मतलब डिब्बे के भीतर चलते फिरते लोगों से पूछें तो हर कोई अपनी भिन्न दिशा और गति की बात करेगा जबकि सच यह है कि सभी यात्री दौड़ती रेल की गति और दिशा से बंधे है उनकी अपनी गति और दिशा एक भ्रम मात्र है सभी का अंतिम सत्य तो एक ही है भले ही हरेक का आभास भिन्न क्यों न हो .............................. ............................ अरुण

देखने में हुई भूल ही है असत्य

सभी बुद्धों के कहने का तात्पर्य यह है कि सत्य तो हमेशा ही विद्यमान है उसे देखने में हुई भूल के कारण ही मानव-मस्तिष्क को असत्य की बाधा होती है और फिर असत्य ही सत्य जैसा लगने लगता है परन्तु जब अचानक ध्यान में असत्य पूरी तरह, गहराई से उतर कर, पारदर्शी बन जाता है तब उसके पार छुपा हुआ सत्य प्रकट हो उठता है मतलब - देखने में हुई भूल ही असत्य है असत्य का अपना कोई अस्तित्व नहीं है ................................... .......................... अरुण

प्यास तो है पर .......

प्यास का समाधान है पानी यह सब ने ही जान लिया है कल्पना करें अगर प्यास तो होती पर पानी के बारें में कुछ भी पता न होता तो पानी छोड़ किसी भी अन्य पदार्ध से प्यास बुझाने की कोशिशें जारी रहती पूजा-पाठ, मंत्र-तंत्र, जप-जाप और ऐसी ही कई बातों को देखकर लगता है 'प्यास' तो है पर सही समाधान की खोज अभी भी जारी है .................................................... अरुण

विज्ञान और अध्यात्म का रिश्ता

दुनिया की हर चीज को माथे में धर लेत माथे का सत् जानते सत् पे माथा टेक जगत को वस्तु जानकर विज्ञानं ने उसका विश्लेषण किया और वस्तु के अन्तस्थ को जानना चाहा पर जब अनायास ‘ जानने ’ का अन्तस्थ स्वयं को अनुभूत करने लगा विज्ञान ‘ जानने में ’ रम गया ............................. अरुण