सांसारिक- इच्छाओं के पीछे की बाध्यता

मनुष्य कुदरत से न अलग है

और न ही अलग हो पाता है

फिर भी उत्क्रांति में हुई भूल के कारण,

वह समाज-मग्न होते ही

उसमें कुदरत से विभक्त होने का

भाव-भ्रम खिल उठता है

यही भाव- भ्रम उसमें कर्ताभाव के साथ ही

संकुचन की पीड़ा भी जगाता है

अनायास ही अपना

संकुचन दूर करने के लिए

वह फैलकर एवं पसरकर

कुदरत से पुनः

एक रूप हो जाना चाहे,

फिर सकल एवं असीम बन जाना चाहे,

यह सहज- स्वाभाविक है

उसकी सभी सांसारिक इच्छाएँ

जैसे धन, नाम, सत्ता, प्रतिष्ठा,

फैलने और पसरने की

सहज-प्रेरणा की ही

परिचायक हैं

....................................... अरुण



Comments

Udan Tashtari said…
आभार इस रचना का.

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