‘शुद्ध जीवन’



जीव ही देखे जीव को, जीव ही समझे जान
गर सुध ही बेसुध रहे, रहे जान बेजान
जान = शुद्ध जीवन
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मनुष्य समेत सभी प्राणी,
वनस्पति एवं पदार्थ के
सन्दर्भ में,
‘शुद्ध जीवन’
अपने व्यापक और गहरे अर्थ में
जन्म के पहले से
मृत्यु के बाद भी किसी न किसी
स्वरूप में सतत जीवंत है.
यदि मनुष्य अपने सम्बन्ध में
इस ‘शुद्ध जीवन’ को
देखना-समझना चाहे  
तो उसे अपने जन्म से सटी
सजीवता और मृत्यु से जुडी 
अजीवता को सतत ध्यान में जीवंत
रखते हुए ही
देखना-समझना होगा
-अरुण 

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