जगत की छाया



जगत की छाया पांच दरवाजों से
भीतर उतरती है
और लुप्त होने से पहले ही
मन में जा रमती है.
यह रमती हुई छाया ही
हरेक की अपनी व्यक्तिगत दुनिया है
-अरुण   

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